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११० : सरस्वती वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
जीव गुणस्थानक्रमसे जितना - जितना योगका निरोध होता जाता है उस जीवमें वहाँ उतना उतना कर्मोंका सवर नियमसे होता जाता है तथा जब योगका पूर्ण निरोध हो जाता हूँ तब कर्मोका संवर भी पूर्णरूपसे हो जाता है । कर्मोंका संवर होनेपर बद्ध कर्मोंकी निर्जरा या तो निषेक-रचनाके अनुसार सविपाकरूपमें होती है अथवा 'तपसा निर्जरा च' (त० सू० ९-३) के अनुसार क्रियावतोशक्तिके परिणमन-स्वरूप तपके बलपर अविपाकरूपमें होती है । इसके अतिरिक्त यदि जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंको संवर और निर्जराका कारण स्वीकार किया जाता है तो जब द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें ही भाववतीशक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाता है तो एक तो द्वादश और त्रयोदश गुणस्थानोंमें सातावेदनीय कर्मका आस्रवपूर्वक प्रकृति और प्रदेशरूपमें बन्ध नहीं होना चाहिए। दूसरे, द्वादश गुणस्थानके प्रथम समय में ही भाववतीशक्ति स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घाती - कर्मोंका तथा चारों अघाती - कर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाना चाहिए | परन्तु जब ऐसा होता नहीं है तो यही स्वीकार करना पड़ता है कि आस्रव और बन्धका मूल कारण योग है और विद्यमान ज्ञानावरणादि उक्त तीनों घाती - कर्मोंकी एवं चारों अघाती - कर्मोकी निर्जरा निषेकक्रमसे ही होती हैं । त्रयोदश गुणस्थानमें केवली भगवान् अघाती कर्मोंकी समान स्थितिका निर्माण करनेके लिए जो करते हैं वह भी उनकी क्रियावतीशक्तिका ही कायिक परिणमन है ।
समुद्घात
इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्या में निर्दिष्ट आचार्य वीरसेनके उपर्युक्त वचनके अंगभूत "सुह- सुद्धपरिणामेहि' पदसे जीवकी क्रियावतीशक्तिके अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभ में प्रवृत्ति रूप परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना ही संगत है। भाववतीशक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ व मोहनीयकर्मके यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना संगत नहीं है ।
यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जयधवलाके उक्त वचनके 'सुह-सुद्ध परिणामेहिं' पदके अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्दका अर्थ यदि जीवकी भाववतीशक्तिके मोहनीयकर्मके यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशम में विकासको प्राप्त शुद्ध परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मंके रूपमें स्वीकार किया जाये तो उस पदके अन्तर्गत 'सुह' शब्दका अर्थ पूर्वोक्त प्रकार जीवको भाववतीशक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनके रूपमें तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है, इसलिए उस 'सुह' शब्दका अर्थ यदि जीवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें स्वीकार किया जाये तो यह भी संभव नहीं है, क्योंकि पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति तो कर्मोंके आस्रव और बन्धका ही कारण होती हैं । अतः उस 'सुह' शब्दका अर्थ जीवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही स्वीकार करना होगा, क्योंकि इस प्रकारके व्यवहार धर्मके पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप अंशसे जहाँ कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है वहीं उसके पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप अंशसे कर्मोंका संवर और निर्जरण भी होता है । परन्तु ऐसा स्वीकार कर लेनेपर भी जीवकी भाववतीशक्ति के स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप परिणमनको पूर्वोक्त प्रकार कर्मोंके संवर ओर निर्जरणका कारण सिद्ध न होनेसे 'सुद्ध' शब्दका अर्थ कदापि नहीं माना जा सकता है । इस प्रकार जयधवलाके ‘सुह-सुद्ध परिणामेहि' पदके अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्दके निरर्थक होनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । अतः उक्त 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' इस सम्पूर्ण पदका अर्थ जीवको क्रियावतोशक्तिके परिणामस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही ग्राह्य हो सकता है ।
यदि यह कहा जाय कि जीवको मोक्षको प्राप्ति उसकी भाववतीशक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चय
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