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३ / धर्म और सिद्धान्त : १०७
स्वार्थवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया और दूसरी कर्त्तव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया। इनमेंसे कर्तव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया ही वास्तविक पुण्यक्रिया है। ऐसी पुण्यक्रियासे ही परोपकारकी सिद्धि होती है। इसके अतिरिक्त वीतरागी देवकी आराधना, वीतरागताके पोषक शास्त्रोंका पठन-पाठन, चिन्तन और मनन व वीतरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुओंकी सेवा-भक्ति तथा स्वावलम्बनशक्तिको जागृत करनेवाले व्रताचरण और तपश्चरण आदि भी पुण्यक्रियाओंमें अन्तर्भूत होते हैं ।
यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त आरम्भी पाप भी यदि आसक्ति आदिके वशीभूत होकर किये जाते हैं तथा पुण्य भी अहंकार आदिके वशीभूत होकर किये जाते हैं तो उन्हें संकल्पी पाप ही जानना चाहिए। संसारी जीवकी क्रियावती शक्तिके दया और अदया-रूप परिणमनोंका विवेचन
ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवकी भाववतोशक्तिका चारित्रमोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोधप्रकृतियोंके उदयमें अदयारूप विभाव-परिणमन होता है, और उन्हीं क्रोधप्रकृतियोंके यथास्थान, यथासंभवरूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशममें दयारूप स्वभाव-परिणमन होता है। यहाँ जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनोंके विषयमें यह बतलाया जा रहा है कि जीवद्वारा परहितकी भावनासेकी जानेवालो क्रियाएँ पुण्यके रूपमें दया कहलाती है और जीवद्वारा परके अहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियाएँ संकल्पीपापके रूपमें अदया कहलाती है। इनके अतिरिक्त जीवकी जिन क्रियाओंमें परके अहितकी भावना प्रेरक न होकर केवल स्वहितकी भावना प्रेरक हो, परन्तु जिनसे परका अहित होना निश्चित हो, वे क्रियाएँ आरम्भीपापके रूपमें अदया कहलाती हैं। जैसे-एक व्यक्ति द्वारा अनीतिपूर्वक दूसरे व्यक्तिपर आक्रमण करना संकल्पीपापरूप अदया है, परन्तु उस दूसरे व्यक्ति द्वारा आत्मरक्षाके लिए उस आक्रामक व्यक्तिपर प्रत्याक्रमण करना आरम्भीपा परूप अदया है।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जीवकी पुण्यमय क्रिया संकल्पीपापमय क्रियाके साथ भी संभव है और आरम्भीपापमय क्रियाके साथ भी संभव है, परन्तु संकल्पी और आरम्भी दोनों पापरूप क्रियाओंमें जीवकी प्रवृत्ति एकसाथ नहीं हो सकती है, क्योंकि संकल्पीपापरूप क्रियाओंके साथ जो आरम्भीपापरूप क्रियाएं देखनेमें आती है उन्हें वास्तवमें संकल्पी पापरूप क्रियाएँ ही मानना युक्तिसंगत हैं। इस तरह संकल्पीपापरूप क्रियाओंसे सर्वथा त्यागपूर्वक जो आरम्भीपापरूप क्रियाएँ की जाती है, उन्हें ही वास्तविक आरम्भीपापरूप क्रियाएँ समझना चाहिए । व्यवहारधर्मरूप दयाका विश्लेषण और कार्य
ऊपर बतलाया जा चुका है कि जीव द्वारा मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंके साथ परहितकी भावनासे की जाने वाली मानसिक, वाचनिक और कायिक शभ क्रियाएँ पुण्यके रूपमें दया कहलाती हैं और वे कर्मोके आस्रव और बन्धका कारण होती हैं, परन्तु भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवों द्वारा कम-से-कम मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें होनेवाली सर्वथानिवृत्तिपूर्वक जो मानसिक, वाचनिक और कायिक दयाके रूपमें पुण्यमय शुभ क्रियाएँ की जाने लगती है वे क्रियाएँ ही व्यवहारधर्मरूप दया कहलाती है । इसमें हेतु यह है कि उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ कियाओंसे निवृत्तिपूर्वक की जाने वाली पुण्यभूत
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