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महत्तर ने इस मन्दिर की यात्रा की । उद्योतनसूरि कृत कुवलयमाला' प्रशस्ति के अनुसार, शिवचन्द्रगरिए के शिष्य यक्षदत्तगरिण ने अपने प्रभाव से यहां पर कई जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया, जो ग्रासपास के इलाकों में आज भी विद्यमान हैं । वलभीपुर के राजा शीलादित्य को जैन धर्म में दीक्षित करने वाले प्राचार्य धनेश्वरसूरि ने इस मन्दिर की यात्रा की । यक्षदत्तगरिण के एक शिष्य वटेश्वरसूरि ने श्राकाशवप्र के एक नगर में एक रम्य जैन मन्दिर का निर्माण करवाया, जिनके दर्शनमात्र से लोगों का क्रोध शान्त हो जाता था । श्राकाशवप्र का अर्थ होता है प्रकाश को छूने वाले पहाड़ का उतार । जीरावला का यह मन्दिर भी आकाश को छूने वाले पर्वत के उतार पर स्थित है और एक ऐसी किंवदन्ती है कि जीरावला का यह मन्दिर आकाश मार्ग से यहां लाया गया है । हो सकता है आकाश मार्ग से लाया हुआ यह मन्दिर ग्राकाशवप्र नामक स्थान की सार्थकता सिद्ध करता हो । वटेश्वरजी के शिष्य तत्वाचार्य थे । उद्योतनसूरिजी के विद्यागुरु श्राचार्य हरिभद्रसूरि थे, जो चित्रकूट ( वर्तमान चित्तौड़ ) निवासी थे । उन्हें जीरावला के मन्दिर की पुनः प्रतिष्ठा से सम्बन्धित बताया जाता है । अपने जैन साहित्य के संक्षिप्त इतिहास के पृष्ठ १३३ पर मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने श्राकाशवप्र नगर को अनन्तपुर नगर से जोड़ा है। मुनि कल्याणविजयजी ने इस नगर को अमरकोट से जोड़ा है । पर वटेश्वरसूरिजी का ग्राकाशवप्र सिंध का अमरकोट नहीं हो सकता । वह तो भीनमाल के आसपास के प्रदेशों में ही होना चाहिये था, और वह मन्दिर भी प्रसिद्ध होना चाहिये । यह दोनों ही शर्तें जीरावला के साथ जुड़ी हुई हैं। क्योंकि जैन तीर्थ प्रशस्ति में जीरावला को विशिष्ट स्थान प्राप्त है |
विक्रम संवत् की सातवीं शताब्दी के अन्त में यहां पर चावड़ा वंश का राज्य रहा । वसन्तगढ़ में वि. सं० ६८२ के शिलालेख इस बात की पुष्टि होती है । इस लेख के अनुसार संवत् ६८२ में वर्मलात नाम के राजा का वहां पर शासन था और उसकी राजधानी भीनमाल थी । वर्मलात के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी व्याघ्रमुख का यहां पर शासन था । वलभीपुर के पतन के पश्चात् वहां पर एक भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा । श्रत: वहां के बहुत से लोग यहां आकर बस गये । पोरवाल जाति को संगठित करने वाले जैनाचार्य हरिभद्रसूरिजी ने (वि. सं. ७५७ से ८२७) यहां की यात्रा की और इस मन्दिर की पुनः प्रतिष्ठा करवायी । तत्वाचार्य वीरभद्रसूरि ने भी यहां की यात्रा की, उन्होंने जालोर और भीनमाल के कई मन्दिरों का निर्माण कराया । सिद्ध सारस्वत स्तोत्र के रचयिता बप्पभट्टसूरि भीनमाल, रामसीन, जीरावल एवं मुण्डस्थला प्रादि तीर्थों की यात्रा कर चुके थे ।
आठवीं सदी के प्रारम्भ में यशोवर्मन् के राज्य का यह प्रदेश अंग था । इतिहास प्रसिद्ध प्रतिहार राजा वत्सराज के समय में यह प्रदेश उसके अधीन था। उसकी राजधानी जाबालिपुर (जालोर) थी । उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र नागभट्ट ने वि. सं० ८७२ में इस प्रदेश पर राज्य किया । नागभट्ट ने जीरावल के पास नागाणी नामक स्थान पर नागजी का मन्दिर बनवाया जो आज तक भी टेकरी पर स्थित है । वह अपनी राजधानी जालोर से कन्नौज ले गया । महान् जैनाचार्य सिद्धषि और उनके गुरु दुर्गस्वामी ने वि. संवत् की दसवीं सदी में यहां की यात्री की । दुर्गस्वामी का स्वर्गवास भिन्नमाल ( भीनमाल ) नगर में हुआ था । नागभट्ट की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों में रामचन्द्र, भोजराज और महेन्द्रपाल प्रमुख हैं। उन्होंने इस प्रदेश पर शासन किया। प्रतिहारों के के पतन के पश्चात् यह प्रदेश परमारों के अधीन रहा । परमार राजा सियक (हर्षदेव ) का यहां शासन होना सिद्व १. इसकी रचना जालोर में हुई ।
શ્રી આર્ય કલ્યાણ ગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ
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