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-उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
जागे युवा शक्ति !
तीन अवस्थाएँ
प्रकृति का यह कैसा अटल नियम है, कि प्रत्येक चेतन पदार्थ की तीन अवस्थाएं होती हैं-बचपन, यौवन और बुढ़ापा । चाहे आप एक जगत की महानतम शक्ति-सूर्य को देखिए, चाहे एक नन्हें से पुष्प को । सूर्य उदय होता है, उसकी किरणें कोमल और सुहावनी होती हैं, प्रातःकाल की कोमल धूप अच्छी लगती है। मध्यान्ह में सूर्य पूरे मा यौवन पर आता है तो धूप प्रचंड और असह्य हो जाती है। शरीर को सुहावनी लगने वाली किरणें जलाने लग जाती हैं। सायंकाल होते-होते सूर्य बुढ़ापे की गोद में चला जाता है, तब तेज, मन्द पड़ जाता है, किरणें शान्त हो जाती हैं। __पुष्प, अंकुर और प्रत्येक जन्मधारी प्राणी इन्हीं तीन अवस्थाओं से गुजरता है। भगवान महावीर ने इन्हें तीन याम 'जाम' कहे हैं। 'तओ जामा पण्णत्ता, पढमे जामे मज्झिमे जामे....' दिन के तीन प्रहर - की भांति प्रत्येक जीवन के तीन प्रहर–अर्थात् तीन अवस्थाएँ होती है। अर्जन का काल : बाल्यकाल
प्रथम याम -अर्थात्-उदयकाल है-बचपन का सुहावना समय है, उदयकाल में प्रत्येक जीवधारी शक्तियों का संचय करता है। प्राण शक्ति और ज्ञान शक्ति, दोनों का ही अर्जन-संचय अथवा संग्रह बाल्यकाल में होता है । बाल्यकाल कोमल अवस्था है। कोमल वस्तु को चाहे जैसा आकार दिया जा सकता है, चाहे जिस आकृति में ढाला जा सकता है। बाल्यकाल में शरीर और मन, बुद्धि और शरीर की नाडियां, नसें सभी कोमल होती हैं, अतः शरीर को बलवान, पहलवान बनाना हो तो भी बचपन से ही अभ्यास किया जाता है। अच्छे TIP संस्कार, अच्छी आदतें, बोलने, बैठने की सभ्यता और संस्कार, काम करने का सलीका, बचपन से ही सिखाये जाते हैं। मानस शास्त्री कहते हैं-'यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत' जो संस्कार, आदतें बचपन में लग जाती हैं, वे जीवन भर मिटती नहीं, इसलिए बचपन 'अर्जन' का समय है । बल संचय, विद्या अर्जन और संस्कार निर्माण-यह बचपन की ही मुख्य देन हैं । यौवन : सर्जन का समय
जीवन की दूसरी अवस्था है-जवानी। कहने को जवानी को 4 दिवानी कहते हैं । शरीर, बुद्धि, संस्कार-सभी का पूर्ण विकास इस अवस्था में हो जाता है। छोटा-सा पौधा धीरे-धीरे जड़ें जमाकर
जागरण का शंखनाद ! जीवन-निर्माण के लिए
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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