________________ 8 60000000000batoday 60ORatosho6000 508 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ आज के विज्ञान ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि प्रभाव वाली रही तो व्यक्ति के शरीर से निकली तरंगों का वर्तुल भिन्न-भिन्न प्रकार की तरंगों से भिन्न-भिन्न प्रकार के कई कार्य किये काला, नीला, कबूतर के पंख के रंग जैसा बनेगा और उसका जा सकते हैं। छोटा-सा टी. वी. का रिमोट कन्ट्रोलर ही अपने में से / बाहरी प्रभाव भी उसी अनुरूप होगा। यदि मौन जप की भाव धारा अलग-अलग अगोचर तरंगों को निकालकर टी. वी. के रंग, शुभ, शुभकर्म, शुभ विचार की अथवा अरुण लेश्या, पीत लेश्या आवाज, चैनल आदि-आदि बदल सकता है। ओसीलेटर यंत्र की / अथवा शुक्ल लेश्या के प्रभाव की रही तो उसके शरीर से निकली अगोचर तरंगें समुद्र की चट्टान का पता दे सकती है, तरंगों से तरंगों का पर्तुल लाल, पीला, श्वेत बनेगा। शरीर में ऑपरेशन किये जा सकते हैं इसी प्रकार साधक द्वारा जप भाष्य से प्रारंभ किया जाकर उपांशु किया जाने के बाद में भिन्न-भिन्न प्रकार के जप द्वारा अपने में एकीकृत ऊर्जा से मानस जप किया जा सकता है। अभ्यास से उसे अजपा जप में भी भिन्न-भिन्न मंत्रों में वर्णित कार्य किये जा सकते हैं। आवश्यकता है परिवर्तित किया जा सकता है। इसके लिये श्रद्धा, संकल्प, दृढ़ता, उन्हें विधिवत् करने की। एकाग्रता, तन्मयता, नियमितता, त्याग, परिश्रम विधिवत्ता आदिपूर्वाचार्यों ने अलग-अलग ध्वनियों से निकलने वाली तरंगों के आदि की आवश्यकता है। अलग-अलग प्रभाव जाने और उसी के आधार पर अलग-अलग जपयोग ध्यान व समाधि के लिये सोपान है। आर्त ध्यान, रौद्र / मंत्र, क्रियाएं आदि बनाये जिनके प्रभावों के बारे में कई बार ध्यान से मुक्त कराकर धर्म ध्यान में प्रविष्ट करता है जो परिणाम देखने, सुनने और समाचार पत्रों में पढ़ने में आता है। में शुक्ल ध्यान का हेतु बनता है। मौन जप की भाव धारा यदि हिंसा, कपट, प्रवंचना, प्रमाद, पताआलस्य की अर्थात् कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या के / भानपुरा (म. प्र.) 458 775 अपरिग्रह से द्वंद्व विसर्जन : समतावादी समाज रचना -मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' (मालव केसरी, गुरुदेव श्री सौभाग्यमल जी म. सा. के शिष्य) प्रवर्तमान इस वैज्ञानिक यन्त्र युग में विविध विकसित का प्रकाश नहीं अपितु हिंसा की ज्वाला ही भड़कती है। हिंसा के सुख-साधनों की जैसे-जैसे बढ़ोत्तरी होती जा रही है, वैसे-वैसे पीछे परिग्रह/तृष्णा का ही हाथ है और अहिंसा की पीठ पर मनुष्य का जीवन अशान्ति/असन्तुष्टि/संघर्ष/द्वंद्व से भरता चला जा, अपरिग्रह/संविभाग का। रहा है। अधिकाधिक सुविधा सम्पन्न साधनों की अविराम दौड़ में अहिंसा और अपरिग्रह-विश्ववंद्य, अहिंसा के अवतार, श्रमण लगा मानव भन, क्षणभर को भी ठहर कर इसकी अन्तिम परिणति भगवान श्री महावीर स्वामी ने पंच व्रतात्मक जिन धर्म का क्या होगी, इसके लिए सोचना/चिंतन करना नहीं चाहता है। संप्राप्त प्रतिपादन किया है-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इंधन से अग्नि के समान मानव मन तृप्त होने की बजाय और सामान्य दृष्टि से ये सब भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं किन्तु विशेष / अधिक अतृप्त बनकर जीवन विकास के स्थान पर जीवन विनाश दृष्टि से-चिंतन की मनोभूमि पर ये विलग नहीं, एक-दूसरे से के द्वार को खोल रहा है। मानव समाज में जहाँ एक ओर साधन संलग्न हैं। एक-दूसरे के प्रपूरक हैं। इनमें से न कोई एक समर्थ है सम्पन्न मानव वर्ग बढ़ रहा है, उससे भी अनेकगुण वर्धित दैनिक / और न कोई अन्य कमजोर। ये सबके सब समर्थ हैं, एक स्थान पर साधन से रहित मानव वर्ग बढ़ता जा रहा है। दो वर्ग में विभिन्न खड़े हैं। एक व्रत की उपेक्षा अन्य की उपेक्षा का कारण बन जाती मानव समाज द्वंद्व/संघर्ष का कारण बन रहा है। क्योंकि एक ओर है, एक के सम्पूर्ण परिपालन की अवस्था में सभी का आराधन हो विपुल साधनों के ढेर पर बैठा मानव समाज स्वर्गीय सुख की सांसें जाता है। अहिंसा के विकास बिन्दु से प्रारंभ हुई जीवन यात्रा से रहा है, तो दूसरी ओर साधन अभाव की अग्नि से पीड़ित } अपरिग्रह के शिखर पर पहुँचकर शोभायमान होती है, तो मानव समाज दुःख की आहें भर रहा है। ऐसी स्थिति में अपरिग्रह से उद्गमित जीवन यात्रा अहिंसा के विराट् सागर पर मानव-मानव के बीच हिंसक संघर्ष/द्वंद्व होने लगे तो क्या आश्चर्य पूर्ण होती है। शेष तीन व्रत-सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य यात्रा को है? कुछ भी तो नहीं। तृष्णा की इस जाज्वल्यमान अग्नि से अहिंसा पूर्णतया गतिशील बनाये रखने में सामर्थ्य प्रदान करते हैं। / SDD D0: 090608 88600000806 20ReddehaRIRAAT0.309483662 0000000000000.GAaResibapaaRSD00000 400 18090968500 ASDDD (06-0/