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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ३. सम्राट अजितसेन-धातकीखण्ड द्वीप के अलका नामक देश में कोशला' नगरी है। वहाँ राजा अजितजंय और उनकी रानी अजितसेना' निवास करते हैं। उक्त श्रीधर देव इन्हीं का पुत्र अजितसेन' होता है। वयस्क होते ही उसे युवराज बना दिया जाता है। अजितजय के देखतेदेखते उसके सभा भवन से युवराज अजितसेन को चण्डरुचि नामक कुख्यात असुर पिछले जन्म के वैर के कारण उठा ले जाता है। राजा व्याकुल होकर मूर्छित हो जाता है। इसी बीच तपोभूषण नामक एक मुनिराज पधारते हैं, और वे यह कहकर वापिस चले जाते हैं कि 'कुछ दिनों के बाद युवराज अजितसेन सकुशल घर आ जायगा"। उधर वह असुर उसे बहुत ऊँचाई से एक सरोवर में गिरा कर आगे चला जाता है । मगर-मच्छों से जूझता हुआ वह किसी तरह किनारे पर पहुँच जाता है। वहाँ से वह ज्यों ही परुषा नाम की अटवी में प्रवेश करता है त्यों ही एक भयङ्कर आदमी से द्वन्द्व छिड़ जाता है। पराजित होने पर वह अपने असली रूप को प्रकट कर देता है, और कहता है-'युवराज, मैं मनुष्य नहीं, देव हूँ। मेरा नाम हिरण्य है। मैं आपका मित्र हूँ, किन्तु आपके पौरुष के परीक्षण के लिए मैंने ऐसा व्यवहार किया है, क्षमा कीजिए। पिछले तीसरे जन्म में आप सुगन्धि देश के नरेश थे। आपकी राजधानी में एक दिन शशी ने सेंध लगा कर सूर्य के सारे धन को चुरा लिया था। पता लगने पर आपने शशी को कड़ा दण्ड दिया, जिससे वह मर गया और फिर वह चण्डरुचि असुर हुआ । इसी वैर के कारण उसने आपका अपहरण किया। बरामद धन उसके स्वामी को वापिस दिलवा दिया। युवराज, वही शशी मरने के बाद हिरण्य नामक देव हुआ, जो इस समय आपसे बात कर रहा है ।"
तत्पचात् युवराज विपुलपुर की ओर प्रस्थान करता है। वहाँ के राजाका नाम जयवर्मा, रानीका नाम जयश्री और उनकी कन्या का नाम शशिप्रभा था । महेन्द्र नामक एक राजा जयवर्मा से उसकी कन्या की मंगिनी करता है, पर किसी निमित्त ज्ञानी से उसे अल्पायुष्क जानकर वह स्वीकृति न दे सका । उससे क्रुद्ध होकर महेन्द्र जयवर्मा को युद्ध के लिए ललकारता है। युवराज जयवर्मा का साथ देता है, और युद्ध में महेन्द्र को मार डालता है। इससे प्रभावित होकर जयवर्मा युवराज के साथ अपनी कन्या शशिप्रभा का विवाह करना चाहता है । इतने में विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी के आदित्यपुर का राजा धरणीध्वज जयवर्मा को सन्देश भेजता है कि वह अपनी कन्या का विवाह मेरे (धरणीध्वज) की साथ करे। इसके लिए जयवर्मा तैयार नहीं होता। फलतः दोनों में भयङ्कर संग्राम छिड़ जाता है। पूर्वचर्चित हिरण्यदेव के सहयोग से युवराज अजितसेन धरणीध्वज को भी युद्धभूमि में स्वर्गवासी बना देता है। इसके उपरान्त राजा जयवर्मा शुभ मुहूर्त में युवराज अजितसेन के साथ अपनी कन्या का विवाह कर देता है। फिर उसके साथ युवराज
१. उ. पु. (५४.८७) में और पुराण सा. (८०.२२) में नगरी का नाम अयोध्या दिया है। २. पुराण सा. (८०.२३) में रानी का नाम श्रीदत्ता मिलता है। ३. श्रीधर देव के गर्भ में आने से पहले उ. पु. (५४.८९) में रानी के आठ शुभ स्वप्न देखने का
उल्लेख है। ४. इस घटना का उल्लेख उ. पु. तथा पुराण सा. में नहीं है। ५. उ. पु. तथा पुराण सा. में इस घटना का उल्लेख नहीं है।
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