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चतुर्विंशति पट्ट या चौबीसी
(राज्य संग्रहालय लखनऊ के संग्रह पर आधारित)
शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी
चतविशीत पट्ट अपरनाम चौबीसी का अपना हीम हत्व है। बौद्ध एवं वैदिक मान्यताओं की तरह चौबीस अर्हन्त जैन जगत में भी सुनिश्चित हैं। जैन मान्यता के अनुसार अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कालचक्र की घूमती गतियाँ हैं तथा प्रत्येक गति में यथा पहले, वर्तमान एवं भविष्य में तीर्थंकर चौबीस चौबीस रहे हैं और होंगें । इन चौबीस तीर्य करों को सनातनी ईश्वर ने उच्चपद प्रदान किया है। कोई भी अपना उत्थान कर बिना किसी की दया, कृपा के उस पद को प्राप्त कर सकता है। ऐसी जैन धर्म की मान्यता है ।
जन प्रतिमाओं का अध्ययन करते समय यह सुस्पष्ट हो उठता है कि शिलापट्टों पर तीर्थकर प्रतिमाएं सबसे पहले बननी प्रारंभ हुई, भले ही इनका उल्लेख खारवेल के लेख में दूसरी शती ई. पू. या सिन्धु संस्कृति या लोहानीपुरादि से यत्र-तत्र उपलब्ध किंचिद अभिलेखीय एवं पुरातात्विक प्रमाणों से होता है। किन्तु शिलापट्टों पर क्षत्रप (सोडास) के संवत् ७२ के समय से तो इन प्रतिमाओं की अविच्छिन्न परम्परा दृष्टिपथ में आ ही जाती है। और इसी के साथ ही जैन प्रतिमा के विद्यार्थी का शोधपथ सरल एवं सुगम हो जाता है।
यूं तो कुषाण काल के आरंभ से ही तीर्थंकरों की स्वतन्त्र एक, चौमुखी या आयागपट्टादि पर प्रतिमाएं पाते ही हैं । ये लेख सहित या लेख रहित दोनों ही हैं । किन्तु शिलापट्टों के बीच में इनका विलेखन पाते हैं। इस प्रकार से ऐसा प्रतीत होता है १. सोमपुरा शिल्प संहिता प. १७२ २. जे-१ आर्यावती
अ आयागपट्ट जे. २५३-पार्श्वनाथ तथा दो सेवक (लेखयुक्त) ब , जे. २५०-तीर्थकर मध्य तथा मुनि (बेल पर) , जे २५२-तीर्थकर (मध्य) लेखयुक्त ।
राज्य संग्रहालय लखनऊ
कि चौबीस तीर्थंकरों को पृथक-पृथक बनाने के स्थान पर एक ही शिलापट्ट पर तीन, पाँच या चौबीस तीर्थंकरों का कलाकारों को बनाना अभीष्ट हो गया । ठीक इसी भाव को साहित्य के मध्ययुग में "चतुर्विशति जिनस्तवन (१० वीं शती), चतुर्विशति जिनस्तुति धर्मघोषकृत तथा जिनप्रभसूरि कृत चतुर्विशति जिनस्तुति (१४ वीं शती) रचा गया।
इस प्रकार जैन संस्कृति के मूर्धन्य विद्वान विद्यावारिधि श्रद्धेय डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने इन पंक्तियों के लेखक को बतलाने की कृपा की कि आयागपट्टों पर जिस प्रकार तीर्थंकरों को बनाया जाता था उसी प्रकार परवर्तीकमल में चौबीसीपट्ट बनने लगे। यह अभिमत समीचीन होने के कारण ग्राह्य प्रतीत होता है । अस्तु चतुर्विशति पट्ट या चौबीसी अस्तित्व में आयी । राज्य संग्रहालय लखनऊ में प्रस्तरीय छह पूर्ण और दो खंडित चौबीसी हैं। ये मथुरा, महोबा, श्रावस्ती के अतिरिक्त मध्यप्रदेश के ग्वालियर स्थित दुब कुंड नामक स्थानों से आयी हैं। इनमें से खंडितों के एवं दो के प्राप्ति स्थल अज्ञात हैं। ये चित्तीदार लाल पत्थर, विन्ध्य बलुए पत्थर, श्वेत संगमरमर, मूंग सदृश्य हरे, सुरमई एवं मटीले घिसुआ प्रस्तरों से गढ़ी गई हैं ।।
दो चौबीसी के खंडित भाग (एस ८४२ व एस ७२०) हैं, जिन पर क्रमशः ८ व ६ ध्यानस्थ जिन ही शेष हैं। इनमें से प्रथम का मूलनायक पूर्णतया अप्राप्य है। दूसरी संख्या अंश किसी किसी चौवीसी का पार्श्वभाग है । मथुरा से उपलब्ध चतुर्विशतिपट्ट जे-५७ है, यह फरवरी १८९० को वहाँ के सुप्रसिद्ध कंकाली टीले से निकली थी। संग्रहालय पंजी के अनुसार इसे ९ वीं शती की माना गया है। किन्तु इस पर उत्कीणित अक्षरों की बनावट एवं मूलनापा तथा अन्य जिनों की मुखाकृति के आधार पर उत्तर गुप्तकालीन कलाकृति लगती है। इस पर छत्र एवं कैवल्य वृक्ष
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राजेन्द्र-ज्योति
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