SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पं० हीरालाल जैन : गुणस्थान : 435 विस्तृत होते हैं और चौथे समय में उनसे आत्मप्रदेश सारे लोकाकाश में व्याप्त हो जाते हैं. इसे लोकपूरण-समुद्घात कहते हैं. इसी प्रकार चार समयों में आत्मप्रदेश वापिस संकुचित होते हुए शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं. इस केवलीसमुदृघात क्रिया से नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति भी आयुकर्म के बराबर अन्र्मुहूर्त की रह जाती है. तभी वे चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं. (14) अयोगिकेवली गुणस्थान : इस गुणस्थान में प्रवेश करते ही शुक्लध्यान का चौथा भेद प्रकट होता है और उसके द्वारा उनके योगों का निरोध होता है. योग-निरोध के कारण ही उनको अयोगिकेवली कहा जाता है. इस गुणस्थान का काल यद्यपि अन्तर्महुर्त कहा जाता है, तथापि वह 'अ इ उ ऋ ल' इन पाँच ह्रस्व स्वरों के बोलने में जितना समय लगता है, तत्प्रमाण ही है. इस गुणस्थान के उपान्त्य या द्विचरम समय में केवली भगवान् अघातिया कर्मों की 72 प्रकृतियों का क्षय करते हैं और अन्तिम समय में, यदि वे तीर्थंकर हैं, तो 13 प्रकृतियों का, अन्यथा 12 प्रकृतियों का क्षय करते हैं और एक क्षण में सर्व कर्मों से विप्रमुक्त होकर अयोगिकेवली भगवान् मुक्त या सिद्ध संज्ञा को प्राप्त करते हुए सिद्धालय में जा विराजते हैं और सदा के लिये आवागमन से विमुक्त हो जाते हैं. उपसंहार कर्म-मलीमस यह संसारी जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा इन चौदह गुण-स्थान रूप नसैनी पर चढ़ता हुआ लोकान्त में अवस्थित सिद्धालय तक पहुँचता है और संसार के अनन्त दुःखों से छूट कर अनन्त आत्मिक सुख का अनुभव करता है. प्रारम्भ के तीन गुणस्थान वाले जीवों की बहिरात्मा संज्ञा है. चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान वाले जीवों को अन्तरात्मा कहते हैं और तेरहवें चौदहवें गुणस्थान वाले जीव परमात्मा कहलाते हैं. इस प्रकार बहिरात्मा से परमात्मा बनने के लिये गुणस्थानों पर चढ़कर उत्तरोत्तर आत्मविकास के लिये प्रत्येक तत्त्वज्ञ पुरुष का प्रयत्न होना चाहिए. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210451
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Spiritual
File Size855 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy