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________________ Jain Education ४३२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय इस गुणस्थान का काल कम से कम अन्तर्मुहूर्त है और अधिक से अधिक आठ वर्ष और एक अन्तर्मुहूर्त से कम एक पूर्व कोटी वर्ष है जो कि कर्म भूमिज मनुष्य की उत्कृष्ट आयु वाले के ही सम्भव है. यह जीव अनुभव करता है कि मैं कितनी ही कारण मेरी आत्मिक शान्ति में बाधा पड़ती ही परित्याग कर साधु बनने के लिये तैयार होता (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान : गृहस्थधर्म का पालन करते हुए भी जब सावधानी क्यों न रखूं, कुटुम्ब आदि के निमित्त से या धनोपार्जनादि के है, तब वह अपने परिवार से भी नाता तोड़ कर और घर-बार का भी है. ऐसी दशा में वह हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा परित्याग कर आजीवन के लिये अहिंसादि पंच महाव्रतों को अंगीकार करता है, घर में रहना छोड़कर साधुजनों के साथ निवास करता है और भिक्षावृत्ति से निरुद्दिष्टि आहार लेता हुआ अपने संयम की साधना में संलग्न हो जाता है. यद्यपि यह संयम का पालन करता है, अतः संयत है. तथापि इसके जब तक प्रमाद का सद्भाव बना रहता है तब तक उसे प्रमत्तसंयत करते हैं. इस गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है. इसलिए साधु के सदा प्रमत्तदशा नहीं रहती है, किन्तु थोड़ी देर में वह सावधान होकर आत्मचिन्तन करता रहता है. जब वह आत्म-चिन्तन करता है, तब उसके अप्रमत्तदशा आ जाती है. इस प्रकार वह सदा प्रमत्तदशा से अप्रमत्तदशा में और अप्रमत्तदशा से प्रमत्तदशा में आता जाता रहता है. संज्वलन कषाय और नव नोकषायों का उदय होने पर महाव्रतों के परिपालन में किन्हीं कारणों से जो अनुत्साह होता है उसे प्रमाद कहते हैं. प्रमाद के १५ भेद परमागम में बतलाये हैं- चार कषाय ( क्रोध, मान, माया और लोभ) चार विकथाएँ (स्वीकवा, राजकचा आहारकथा और देशकथा) पाँच इन्द्रियों के विषयों की ओर झुकाव, प्रणव (स्नेह) और निद्रा साधु सदा आत्म-चिन्तन में निरत नहीं रह सकता है, अतः उसकी प्रवृत्ति इन १५ प्रमादों में से किसी न किसी प्रमाद की ओर घड़ी-आध घड़ी के लिये होती रहती है. जितनी देर उसकी प्रवृत्ति प्रमाद रूप रहती है, उस समय उसकी प्रमत्त संज्ञा है और वह पाँचों पापों का यावज्जीवन के लिये सर्वथा त्याग कर चुका है, अतः संयम धारण करने के कारण संयत है. इस प्रकार वह प्रमत्तसंयत कहा जाता है. (७) श्रप्रमत्तसंयत: जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, साधु की सावधान-दशा का नाम ही सातवाँ गुणस्थान है. जितनी देर आत्म-चिन्तन और उसके मनन में जागरूक रहता है, उतनी देर के लिये ही वह सातवें गुणस्थान में पहुँचता है, और किसी एक प्रमाद रूप परिणति के प्रकट होते ही छठे गुणस्थान में आ जाता है. यद्यपि इन छठे और सातवें गुणस्थान का काल साधारणतः अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है, तथापि छठे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान का काल आधा है. इसका यह अर्थ है कि साधु आत्म-चिन्तन में संलग्न रह कर जितनी देर अन्तर्मुख रहता है उससे अधिक काल तक वह बहिर्मुख रहता है. यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि जिन साधुओं की प्रवृत्ति निरन्तर बहिर्मुखी की ही चर्चा करते रहते हैं, विकथाओं में व्यस्त और निद्रा में मस्त रहते हैं, देखने में आती है, जो निरन्तर खान-पान समझ लीजिए कि वे भावलिंगी साधु नहीं हैं. व्याख्यान देते, खान-पान करते और चलते फिरते में भी भावलिंगी साधु सदा सावधान रहेगा और उक्त कार्यों के करते हुए भी बीच-बीच में उसे विचार आता होगा कि "आत्मन् तुम कहाँ भटक रहे हो ! यह बातचीत, खानपान और गमनागमनादि तो तुम्हारा स्वभाव नहीं हैं. फिर भी तुम अभी तक इनमें अपना अमूल्य समय व्यतीत कर आत्मस्वरूप से पराङ्मुख हो रहे हो" ऐसा विचार आते ही वह आत्माभिमुख हो जायगा. वर्तमान काल में कोई भी साधु सातवें गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में नहीं चढ़ सकता है, क्योंकि ऊपर चढ़ने के योग्य न तो उत्तम संहननादि आज हैं और न मनुष्यों में उतनी पात्रता ही है. किन्तु जिस काल में सर्व प्रकार की पात्रता और साधन सामग्री सुलभ होती है, उस समय साधु ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है. सातवें गुणस्थान से लेकर बाहरवें गुणस्थान तक का काल परम समाधि का है. परम समाधि की दशा छद्मस्थ जीव के अन्तर्मुहूत काल से अधिक नहीं रह सकती है. इसलिए सातवें, आठवें आदि एक-एक गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त है और सबका सामूहिक काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है, ऐसा जानना चाहिए. ary.org
SR No.210451
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Spiritual
File Size855 KB
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