________________
[२]
है, यह भी सट करते हैं । तर्कभाषाकार और प्रकाशि
काकार ने शब्द के अनित्यत्व की चर्चा यद्यपि नहीं को है किन्तु इसका महत्त्व समझते हुए गुणरत्न इस चर्चा को छेड़ते हैं, और शब्द- नित्यत्व आदि मोमांसक के मत का खण्डन भी करते हैं । इस चर्चा में शब्द की शक्तियाँ, अभित्रा, लक्षणा और व्यञ्जना की चर्चा भो समाविष्ट हो जाती है ( पृ० ३५) ।
चारों प्रमाणों की स्थापना के अनन्तर अर्थापत्ति, अनुपलब्धि, किंवा अभाव ये दो प्रमाणों का अन्तर्भाव अनुमान में न्याय और वैशेषिक परम्परा करती है। तरङ्गिगीकार भी उनका अनुसरण करते हुए इन प्रमाणों का अमान में अन्तर्भाव करते हैं। प्रमाण के अन्तर्भाव की इस चर्चा में विशेषण विशेष्य भाव सम्बन्ध से अभाव का प्रत्यक्षज्ञान कैसे होता है यह भी विशदता से तरंगिणी में समझाया गया है ( पृ० ३३५-३५७) ।
प्रमाणों को चर्चा में तर्कभाषाकार ने प्रामाण्यवाद की चर्चा भी की है । इस विषय में तर्कभाषाकार पूर्व पक्ष में भट्टमत के सिद्धान्त को रखते हैं । प्रकाशिका का स्वतः प्रामाण्यवादो मीमांसक के तीनों मतों को लेकर उनका खण्डन करते हैं । गुगरल मोमांस और नैयायिक दोनों के मतों को समझाकर प्रथम ज्ञानप्रामाण्य क्या है, यह विस्तार से समझाते हैं और मीमांसक के प्रत्येक मत को विशदता से और विस्तार से चर्चा करते हैं ( पृ० ३६१६२) । यद्यपि इस विषय में जैन सिद्धान्त न्याय वैशेषिक के सिद्धान्त से पृथक् है । फिर भी गुणरल इसे प्रामाणिकता से न्याय वैशेषिक के परतः प्रामाण्यवाद का स्थापन और मण्डत करते हैं । करीब आधा ग्रन्थ तरंगिणीकार ने प्रमाण की चर्चा में उपयुक्त किया है ।
प्रमाणको चर्चा के अनन्तर न्याय दर्शन के बारह प्रयों की चर्चा शुरू होती है । इन बारह प्रमेयों में भी से मुख्य आत्मा, शरीर, और इन्द्रिय की
आव्या
Jain Education International
चर्चा होनी चाहिए परन्तु प्रमाण-विचार जितनी चर्चा इन प्रमेयों की नहीं की गई है । इस विषय में तर्कभाषाकार से लेकर तरङ्गिणीकार तक सब समान हैं । शरीर की चर्चा गुणरत्न ने शरीरत्व जाति है या नहीं इसकी चर्चा छेड़ी है ( पृ० ४३८ - ३६) और साङ्कर्य दोष होते हुए मी शरीरत्व जाति है ऐसा स्वीकार किया है।
में
चतुर्थ प्रमेय अर्थ की चर्चा में वैशेषिक मत के सातों पदार्थों का निरूपण तर्कभाषाकार ने किया है। इससे कुछ पदार्थों को चर्चा की पुनरुक्ति होती है । गुणरत्न इस वास्ते इस विषय की कोई विस्तृत चर्चा नहीं करते हैं । यहां 'एवम्' पद का विचार श्रीगुणरत्न विस्तार से करते हैं ( पृ० ४४८ ) । चर्चा का समापन करते हुए 'एव' पद का अर्थ अन्योन्याभाव हो सकता है ऐसे लीलावतीकार के मत को वे समर्थित करते हैं ।
अर्थ में से द्रव्य पदार्थ के निरूपण में पृथ्वी का निरूपण आता है। इसमें विशेष चर्चा पाकज प्रक्रिया की को गई है । यह चर्चा यहां संक्षेप में ही की जाती है, क्योंकि इस चर्चा का उचित स्थान गुणों की चर्चा में है । द्रव्यों की चर्चा में तेजस द्रव्य सुवर्ण को चर्चा भी स्वभावतः की जाती है । इस विषय में तरंगिणीकार सूचन करते हैं कि यद्यपि सुवर्ण में तेजस रूप तथा स्पर्श उत्पन्न होता है किन्तु पृथ्वी के परमाणु को अधिकता होने से पार्थिवरूप और पार्थिव स्वर्श से अभिभूत हो जाते हैं ( पृ० ४५२-५४) ।
पृथ्वी, जल, तेज और वायु के निरूपण के अनन्तर चारों द्रव्यों के परमाणुओं की चर्चा में परमाणुवाद की चर्चा की जाती है ! जैनदर्शन के पुद्गल और न्यायवैशेषिक के परमाणु भिन्न होने पर भी श्री गुणरत्न यहां केवल परमाणुवाद की चर्चा करते हैं । परमाणुओं से सृष्टिसंहार की प्रक्रिया कैसे होती है, यह वैशेषिक मत के अनुसार समझाया गया है। यहां पर प्रलय के समय सारे परमाणुओं का विभाजन कैसे होता इसे विस्तार से तर्क
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org