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________________ यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - 'Look before you leap & think before you speak' पहले हदय तौल कर, पाछे बाहर खोल। कदम उठाने के पहले देखो और बोलने के पहले सोचे जो भी बोला जाए. वह हित. मित और सत्य हो। सत्य आवश्यक होने पर ही निर्दोष वचन बोलने को भाषा समिति होने पर भी जो अप्रिय है, कट है. उसे नहीं बोलना चाहिए। कहते हैं। ४२ दोष टालकर निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने को एषणा एक उर्द शायरने तो कहा हैसमिति कहते हैं। उपकरणों के प्रतिलेखन और प्रमार्जन में विवेक कुदरत को नापसंद है, सख्ती जबान में। रखने को निक्षेपण समिति कहते हैं। इसलिए दी नहीं, हड्डी जवान में। मन को अशुभ ध्यान से रोककर निरवद्य शुभ या शुद्ध शरीर को आस्रव प्रवृत्ति से रोककर संवर में स्थिर करना तत्त्वचिंतन में लगाने को मनोगुप्ति कहते हैं। यह सबसे कठिन कायगुप्ति है। साधक के लिए शरीर पर नियंत्रण भी आवश्यक है। इसको साध लेने पर साधना में निश्चित सफलता मिलती है। है। साधक की भावना सदैव महाव्रतों का तीन करण तथा तीन कहा भी गया है योग से पालन करने की होती है। गृहस्थ की भावना अपने तन से जोगी सब हुए, मन से बिरला कोय। अणुव्रतों का दो करण तथा तीन योग से पालन करने की रहती है। जो मन से जोगी हुए, सहज ही सब सिद्ध होय॥ अर्थात् मन, वचन, काया से आस्त्रव सेवन करूँ नहीं, कराऊँ नहीं। कबीरदासजी ने भी इस विषय में ऐसा ही कहा है चारित्र के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता। मात्र ज्ञान से कोई कबीरा मनडुं गयंद है, अंकुश दे-दे राख। पण्डित नहीं हो सकता। कहा गया हैविष की बेला परिहरे, अमृत का फल चाख।। पढ़े पढ़ावे चिन्तवे, व्यसनी मूरख दोय। जिह्वा को सावध और दोषपूर्ण वचन बोलने से रोकना जे जीवन में आचरे, ते जन पण्डित होय।। वचनगुप्ति है। वचनगुप्ति का संबंध जीभ से है, जिसको जीतना तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा गया है कि 'सम्यक्दर्शनज्ञानअन्य इंद्रियों की अपेक्षा अधिक कठिन है, क्योंकि यह एक होत चारित्राणि मोक्षमार्गः।' क्रिया के बिना शक ज्ञान लँगडा है और हए भी इसके दो कार्य हैं, बोलना और खाना। जीभ को वश में जान के बिना मात्र क्रिया अन्धी है। इस विषय में एक दृष्टान्त है। करना साधक के लिए अत्यंत आवश्यक है। जीभ के वश होकर ही संयम पालन में विघ्न आते हैं। जीभ सबसे छोटा अंग एक सेठ के घर में चोर घुस आए। सेठानी ने सेठ से कहा है पर इसको वश में करना ही सबसे कठिन है। जिन्होंने इसको कि 'घर में चोर घुस गए हैं। सेठ बोला, 'जानता हूँ।' चोरों ने वश कर लिया उन्होंने सब वश में कर लिया ऐसा समझना तिजोरी खोल ली तो सेठानी ने फिर कहा। सेठ फिर बोला चाहिए। अधिकांश झगड़े, मारपीट और बड़े-बड़े युद्ध भी इस 'जानता हूँ।' चोरों ने आभूषणों और नोटों की गठरी बाँध ली और जीभ पर नियंत्रण न होने से ही होते हैं। कवि रहीम जी ने ठीक ही जाने को तैयार हो गए। सेठानी ने फिर सावधान किया कि चोर माल ले जा रहे हैं। सेठ फिर बोला- 'जानता हूँ।' तब सेठानी को कहा है क्रोध आ गया। वह चिल्लाकर बोलीरहिमन जिह्वा बावरी, कह गई स्वर्ग पाताल। आपहु तो कह भीतर गई, जूती खात कपाल।। जानू जानूं कर रह्या, माल गयो अति दूर। . सेठानी कहे सेठ से, थारे जाणपणा में धूर।। साधक को मौन रखना चाहिए। बहत आवश्यकता होने पर ही बोलना चाहिए। बक-बक नहीं करनी चाहिए। जो भी सचमुच ऐसे जानने से कुछ भी फायदा नहीं है। अंग्रेजी में बोला जाए उसे पहले हृदय में तौल-तौलकर बोलना चाहिए। भी कहावत है किकवि कहते हैं "No knowledge is power unless put into action" बोली-बोल अमोल है, बोल सके तो बोल। अर्थात् जब तक ज्ञान को क्रियान्वित नहीं किया जाए, तब तक वह सशक्त नहीं बन सकता। नीति में कहा हैDoordarshword-roword-Howard-id-id-d-Grib १ ४/brdestroGurdGibrobraibusinird-Grdrobriramidrorande Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210425
Book TitleKriya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendravijay
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size635 KB
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