Book Title: Kriya
Author(s): Narendravijay
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 1
________________ क्रिया यों तो संसार के सभी प्राणी क्रिया करते हैं, कोई भी बिना क्रिया के नहीं रह सकता, पर यहाँ लौकिक क्रिया के विषय में नहीं कहना है, यहाँ तो लोकोत्तर क्रिया, धर्मक्रिया, सम्यक् क्रिया अर्थात् सम्यक् चारित्र के विषय में चर्चा करनी है। आत्मा और कर्म का बन्धन अनादिकाल से है। संसार में यह बन्धन मोह और अज्ञान के कारण है। फिर भी इस संसार में सुख की खोज निरंतर चालू है। सभी प्राणी सुखी होना चाहते हैं, कोई भी दुःखी नहीं रहना चाहता, पर ज्ञानियों का कहना है कि संसार में दुःख ही दुःख भरा है। संसार में दुःखभय, पापभय, रोगभय, वेदनाभय, जराभय और न जाने कितने-कितने और कैसे-कैसे भय भरे पड़े हैं। ये दुःख क्यों हैं? क्योंकि आत्मशक्ति दब गई है और कर्म की शक्ति जीव पर हावी हो गई है। कर्म की शक्ति को सत्त्वहीन करने के लिए, कर्म के बन्धनों को तोड़ने के लिए धर्मशक्ति का प्रयोग आवश्यक है। चार पुरुषार्थों में धर्म मुख्य पुरुषार्थ है। धर्म बीज है अर्थ और काम तो तना और पत्तियां हैं, मोक्ष उसका फल है। कर्मबन्धन को काटने के लिए धर्मक्रिया या सम्यक् चारित्र की आवश्यकता है । संसारी जीव मोहान्धकार और अज्ञानान्धकार . में भटक रहे हैं। धर्म रूपी प्रकाश से मार्ग तो मिला है, पर उस मार्ग पर चलने से ही कर्म कटेंगे। परम ज्ञानी पुरुष स्वयं प्रकाश प्राप्त कर उस पर चलते हैं और दूसरों को भी उस पर चलने की प्रेरणा देते हैं। श्री हरिभद्रसूरिजी ने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी। आज तो उनमें से कुछ ही उपलब्ध उनका धर्मबिन्दु ग्रन्थ जीवन-निर्माण के लिए अत्यंत उपयोगी है। जीवन में नैतिक, धार्मिक, व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग इसमें मिलेगा। Jain Education International कभी किसी से मामूली सा झगड़ा हो जाए तो आप वकील की सलाह लेते हैं। घर में किसी को मामूली सा बुखार हो जाए तो डॉक्टर के पास जाते हैं। मकान बनाना हो तो इंजीनियर की सलाह लेते हैं। फीस देकर, सलाह लेकर उसके कहे अनुसार करते हैं, किन्तु धर्मगुरु बिना फीस लिए जीवन का सच्चा मार्ग बताते हैं और सच्ची सलाह देते हैं, पर उनकी सलाह पर चलते कितने लोग हैं? परमपूज्य आगमज्ञाता साहित्याचार्य मुनिराज श्री देवेन्द्रविजयजी महाराज के शिष्य मुनिश्री नरेन्द्र विजयजी 'नवल'...... धर्मक्रिया में सबसे प्रथम स्थान सत्संग का है। धर्म की वाणी को तथा शास्त्र की वाणी को निरन्तर सुनना चाहिए । सन्तजनों के मुख से उच्चरित जिनवाणी को सुनने से विचारशुद्धि प्राप्त होती है। वस्त्र शुद्ध हों, मकान शुद्ध हो, खाना-पीना शुद्ध हो, सब कुछ शुद्ध हो, पर विचार शुद्ध न हों, आचरण शुद्ध न हो तो कहिए क्या होगा? बुद्धि की शुद्धि होगी तो सिद्धि भी मिलेगी, प्रसिद्धि भी होगी और समृद्धि भी बढ़ेगी । बुद्धि की शुद्धि के बारे में एक दृष्टान्त याद आ गया है। एक महात्माजी नाव में संवार थे। कुछ अन्य लोग भी उस नाव में बैठे थे। कुछ तो शान्तिप्रिय सज्जन थे, कुछ को उन्माद सूझ रहा था । खाली दिमाग शैतान का घर होता है। परस्पर बातचीत होने लगी। कुछ बातें सत्य होती हैं, कुछ सत्य के करीब होती हैं, कुछ झूठ होती है और कुछ झूठ के करीब होती हैं। महात्माजी ने कहा, भाइयो! बातें करनी हैं तो कुछ अच्छी बातें करो, जिन्हें सुनकर प्रसन्नता हो, आपस में मधुरता बढ़े, मित्रता बढ़े। आप लोगों की बातें सुनकर तो सभी अन्य यात्रीगण लज्जा एवं घृणा के भाव से ओतप्रोत हो रहे हैं। महात्माजी की शिक्षा लोगों को ऐसी लगी मानो साँप की पूँछ पर पाँव रख दिया हो। वे लोग महात्माजी को ही भला-बुरा कहने लगे। महात्माजी भजन में लीन हो गए। एकाएक आकाशवाणी हुई, महात्माजी ! अगर आप कहें तो इन दुष्टों को अभी फल चखा दूँ, इस नाव को उलट दूँ। आकाशवाणी सुनकर सब টটGট१० Fonট For Private Personal Use Only টট www.jainelibrary.org

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