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१४४ सरस्वती-वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
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हमारा ऐन्द्रियक ज्ञान किन्हीं कारणोंको वजहसे संशयात्मक हो जाता है तो निराकरणके साधन उपलब्ध हो जानेपर संशय के निराकरणकालमें ही वह ज्ञान धारणारूप नहीं हो जाया करता है । कदाचित् संशयके निराकरणकालमें वह ज्ञान धारणा रूप नहीं हो सका तो जब तक वह ज्ञान धारणारूप नहीं होता तब तक उसकी अवायरूप स्थिति रहा करती है। कभी कभी संशयनिराकरण के साधन उपलब्ध होनेपर भी यदि संशयका पूर्णतः निराकरण नहीं हो सका तो उस हालत में हमारा वह ज्ञान ईहात्मक रूप धारण कर लेता है। और कालान्तर में वह ज्ञान या तो सीधा पारणारूप हो जाया करता हैं अथवा पहले अवायात्मक होकर कालान्तर में धारणारूप होता है। इस तरह ज्ञानके धारणारूप होनेमें निम्न प्रकार विकल्प खड़े किए जा सकते हैं
१. पदार्थदर्शनकी मौजूदगी में ही उस पदार्थका प्रत्यक्ष होता है।
२. इन्द्रियों अथवा मन द्वारा होनेवाला पदार्थ प्रत्यक्ष या तो सीधा धारणारूप होता है । अथवा ३. अवग्रहपूर्वक धारणारूप होता है । अथवा
४. संशयात्मक अवग्रहण होनेके अनन्तर यथायोग्य साधन मिलनेपर धारणारूप होता है अथवा
५. संशयात्मक अवग्रहण के अनन्तर यथायोग्य साधनोंके मिलनेपर उसकी अवायात्मक स्थिति होती है। और तदनन्तर वह धारणारूप होता है अथवा
६. संशयात्मक अवग्रहण के अनन्तर यथायोग्य साधनोंके मिलनेपर उसकी ईहात्मक स्थिति होती है और तब वह धारणारूप होता है । अथवा
७. ईहाके बाद आवायात्मक स्थिति होकर वह धारणारूप होता है। इस प्रकार ऐन्द्रिविक पदार्थ प्रत्यक्षके धारणारूप होनेमें ऊपर लिखे विकल्प बन जाते हैं और इन सब विकल्पोंके साथ पदार्थ दर्शनका संबंध जैसाका तैसा बना रहता है। लेकिन जिस समय और जिस हालतमें पदार्थका दर्शन होना बन्द हो जाता है उसी समय और उसी हालत में पदार्थप्रत्यक्षकी धारा भी बन्द हो जाती है। इस तरह कभी तो ऐन्द्रिधिक पदार्थप्रत्यक्ष धारणारूप होकर ही समाप्त होता है और कभी-कभी यथायोग्य अवग्रह, संशय, ईहा या अवायकी दशामें ही वह समाप्त हो जाता है ।
इस विवेचनसे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जिस प्रकार धारणाप्रत्यक्ष से लेकर परोक्ष कहे जाने वाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतरूप ज्ञानोंमें नियत, आनन्तर्य पाया जाता है उस प्रकार प्रत्यक्ष कहे जानेवाले अवग्रह, ईहा अवाय और धारणारूप ज्ञानोंमें आनन्तर्य नियत नहीं है तथा यह बात तो हम पहले ही कह आये हैं कि अवग्रह, ईहा अवाय और धारणा इन चारों प्रकारके प्रत्यक्षज्ञानों में उत्तरोत्तर कार्यकारणभावका सर्वथा अभाव ही रहता है।
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इन पूर्वोक्त प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी ऐन्द्रियक ज्ञानोंमेंसे एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके समस्त असंज्ञी जीवोंके पदार्थका केवल अवग्रहरूप प्रत्यक्षज्ञान स्वीकार किया जावे और शेष प्रत्यक्ष कहे जाने वाले ईहा, अवाय और धारणाज्ञान तथा परोक्ष कहे जानेवाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतज्ञान उन असंज्ञी जीवोंके न स्वीकार किये जायें, जैसा कि बुद्धिगम्य प्रतीत होता है, तो इनके (असंज्ञी जीवोंके ) ईषत् मनकी कल्पना करनेकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती है और तब संज्ञी तथा असंज्ञी जीवोंकी 'जिनके मनका सद्भाव पाया जाता है वे जीव संज्ञी, तथा जिनके मनका सद्भाव नहीं पाया जाता है वे जीव असंज्ञी कहलाते है' ये परिभाषाएँ भी सुसंगत हो जाती है।
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