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क्या असंज्ञी जीवोंमें मनका सद्भाव है ? श्री डॉ० हीरालाल जैन एम० ए० नागपुरने अखिल भारतीय प्राच्य-विद्या सम्मेलनके १६वें अधिवेशनके समय प्राकृत और जैनधर्म विभागमें जो निबन्ध पढ़ा था उसका हिन्दी अनुवाद 'असंज्ञी जीवोंकी परंपरा' शीर्षकसे अनेकान्तपत्रके वर्ष १३ की संयक्त किरण ४-५ और ७ में प्रकाशित हआ है।
डॉ० साहबके निबन्धका सारांश यह है कि असंज्ञी माने जाने वाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके जब मति और श्रत दोनों ज्ञानोंका सद्भाव जैन आगममें स्वीकार किया गया है तो निश्चित ही उन सभी जीवोंके मनका सद्भाव सिद्ध होता है कारण कि मति और श्रुत ये दोनों ही ज्ञान मनकी सहायताके बिना किसी भी जीवके सम्भव नहीं है ।
अभी तककी प्रचलित दि० आगमपरंपरा यह है कि जिन जीवोंके मनका सद्भाव पाया जाता है वे जीव संज्ञी और जिन जीवोंके मनका सद्भाव नहीं पाया जाता है वे जीव असंज्ञी कहे जाते हैं । परन्तु डॉ० साहबने संज्ञी जीवोंके साथ असंज्ञी जीवोंका अन्तर दिखलाने के लिये अमनस्क शब्दका मनरहित अर्थ न करके 'ईषत् मन वाला' अर्थ किया है।
डॉ० साहबने अपने उक्त विचारोंकी पुष्टि आगमके कतिपय उद्धरणों और युक्तियों द्वारा की है ।
इन्द्रियजन्य सभी प्रकारके मतिज्ञानमें मनकी सहायता अनिवार्य है-यह विचार न तो आज तक मेरे मनमें उठा और न अब भी मैं इस बातको माननेके लिये तैयार हैं । परंतु समूचे जैन आगममें असंज्ञी जीवोंके श्रुतज्ञानकी सत्ता स्वीकार करनेसे मेरे मनमें यह विचार सतत उत्पन्न होता रहा कि श्रुतज्ञान, जो कि मनके अवलम्बनसे ही उत्पन्न होता है, मन रहित असंज्ञी जीवोंके कैसे सम्भव हो सकता है ?
प्रायः वर्तमान समयके सभी दि० विद्वान असंज्ञी जीवोंके मनका अभाव निश्चित मानते हैं; इसलिये उनके (असंज्ञी जीवोंके) आगममें स्वीकृत श्रुतज्ञानकी सत्ता स्वीकार करके भी वे विरोधका परिहार इस तरह कर लेते हैं कि असंज्ञी जीवोंके मन का अभाव होनेके कारण लब्धिरूप हो श्रुतज्ञान पाया जाता है क्योंकि उपयोगरूप श्रुतज्ञान मनके सद्भावके बिना उनके (असंज्ञी जीवोंके) संभव नहीं है।
दि० विद्वानोंका उक्त निष्कर्ष मझे संतोषप्रद नहीं मालूम होता है। अतः मेरे सामने आज भी यह प्रश्न खड़ा हुआ है कि मनके अभावमें असंज्ञी जीवोंके श्रुतज्ञानकी संगति किस तरह बिठलाई जावे ?
श्वे० आगमग्रंथ विशेषआवश्यकभाष्यका वह प्रकरण, जिसका उद्धरण डॉ० साहबने अपने निबन्धमें दिया है और जिसमें एकेन्द्रिय आदि समस्त असंज्ञी जीवोंके भी तरतमभावसे मनकी सत्ताको स्वीकार किया गया है। करीब २० वर्ष पहले मेरे भी देखने में आया था। लेकिन उससे भी मेरे उक्त प्रश्नका उचित समाधान नहीं होता है, क्योंकि असंज्ञी जीवोंके मनके अभावमें लब्धिरूप श्रुतज्ञानकी सत्ताको स्वीकार करने और उनके ईषत-मनका सद्भाव स्वीकार करके उपयोगरूप श्रुतज्ञानकी सत्ता स्वीकार करने में असंतोषप्रद स्थितिका विशेष अन्तर नहीं है।
चूंकि डॉ० साहबने उक्त विषयमें अपने विचार लिपिबद्ध किये हैं, अतः इस विषयपर मेरे अब तकके चितनका जो निष्कर्ष है उसे मैं भी विद्वानोंके समक्ष उपस्थित कर देना उचित समझता हूँ।
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