________________ 454 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड यहाँ दो प्रश्नों पर विचार महत्वपूर्ण है। क्या नवलसाह चंदेरिया का ऐतिहासिक ज्ञान विश्वास के योग्य है ? यदि है, तो गोयलगढ़ स्थान कौन सा है ? पं० मोहनलाल काव्यतीथं (गोलापूर्व डायरेक्टरी के संपादक) ने नवलसाह के लेखन को विश्वसनीय नहीं माना था / परंतु ध्यान से परीक्षा करने पर नवलसाह के कथन अक्सर प्रामाणिक निकलते हैं। नवलसाह ने अपने से छह पीढ़ी पहले के पूर्वज भेलसी निवासी भीषमसाह द्वारा सं० 1691 (अर्थात् 174 वर्ष पूर्व) गजरथ चलवाकर सिंघई पद पाने का उल्लेख किया है / यह स्पष्ट ही सही है क्योंकि भीखमसाह चंदेरिया द्वारा निर्मित सं० 1691 का मंदिर भेलसी में आज भी है / नवलसाह ने चंदेरिया बैंक (गोत्र) के चार खेरों (ग्रामों) का उल्लेख किया है। यह जानकारी तब की है जब चंदेरिया कुल के लोग केवल चार ग्रामों में बसते थे। नवलसाह के पूर्वज बड़खेरे के निवासी थे। इतना ही नहीं, नवलसाह ने अपने प्राचीन काल के पूर्वज गोल्हनसाह (गोल्हण साह) के बारे में भी लिखा है जो चन्देरी के निवासी थे। शिलालेखों से पता चलता है कि ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में इस प्रकार के नाम काफ़ी लोकप्रिय थे। नवल साह को गोल्हन साह से भीषम साह तक भी कुछ जानकारी उपलब्ध थी, परन्तु "तितने जो सब वर्णन करो, बाढ़ ग्रंथ पार नहीं थरो" / नवलसाह ने गोयलगढ़ का उल्लेख किसी श्रुत परम्परा के आधार पर किया था, यह मानना पड़ेगा। गोयलगढ़ ग्वालियर ही मालूम होता है। गोयलगढ़ तो पद्य के लिए प्रयुक्त गोयलगढ़ का रूपान्तर है / यहाँ पर ग्वालियर के इतिहास व ग्वालियर शब्द की उत्पत्ति पर विचार आवश्यक है। ग्वालियर नाम किसी ग्वालिय ऋषि के नाम पर पड़ा कहा जाता है / पर यह आधुनिक कल्पना ही है। प्राचीन लेखों में इसे गोपाद्रि, गोपाचल आदि कहा गया है। इसका अर्थ है कि पर्वत का सम्बन्ध गोप जाति से या किसी गोप व्यक्ति से माना जाता था। गोप शब्द के कई रूपान्तर हैं-उत्तर भारत में ग्वाल, ग्वला, गावली, गावरी आदि / दक्षिण भारत में अनेक चरवाहा जातियाँ है-ये ये सब गोल्ला कहलाती हैं। ग्वालियर शब्द में प्रथम भाग ग्वाल अर्थात् गोप ही है / दूसरा भाग सम्भव है गढ़ का अपभ्रंश हो। यद्यपि यह प्रवृत्ति सन्देहरहित नहीं है / ग्वालियर के किले के प्राचीनतम लेख हण (शक) तोरमाण व उसके पत्र मिहिरकुल के है। तोरमाण पंजाब के शाकल स्थान का राजा था , स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद उसने मध्य भारत पर अधिकार कर लिया था। कुवलयमालाकहा के अनुसार तोरमाण हरिगुप्त नाम के जैन आचार्य का अनुयायी था। इसके एरण (जि. सागर) के पास ई० 495 का लेख व सिक्के मिले हैं। 535 के आसपास कौस्मस इंदिकोप्लूस्तस (अर्थात् भारत मार्गदर्शक) नाम के प्रोक (यवन) लेखक ने अरब, फारस. भारत आदि देशों की यात्रा का विवरण किया है। इसने गोल्लास् नाम के किसो शक्तिशाली राजा का उल्लेख किया है। ग्रीक भाषा में नामों के बाद स् लगता है (जैसे संस्कृत में विसर्ग लगता है), इस कारण से नाम गोल्ला होना चाहिए। इतिहासकारों का अनुमान है कि यह मिहिरकुल है जिसे ई० 533 के लेख के अनुसार यशोधर्मा ने परास्त किया था। मिहिरकुल को मिहिरगुल भी लिखा गया है, गोल्लागुल का ही रूप है, ऐसा अनुमान किया गया है / परन्तु यह भी सम्भव लगता है कि गोल्लादेश (ग्वालियर के आसपास) का अधिपति होने के कारण वह गोल्लास् कहलाया। यदि नवलसाह का कथन माना जाए, तो गोल्लापूर्व जाति ग्यारहवीं-बारहवीं सदी से कई सौ वर्ष पहले ग्वालियर के आसपास के क्षेत्र से जाकर बसी थी यह मानने से एक अन्य समस्या का समाधान हो जाता है। गोलालारे, गोलसिंघारे व गोलापूर्व ब्राह्मण जातियां ग्वालियर के आसपास ही (भिंड, आगरा, इटावा आदि जिलों में) बसती हैं / गोलापूर्व जैन जाति का भी प्राचीनतम निवास यही होना चाहिये / दसवीं-ग्यारहवीं सदी के पूर्व मूतिलेखों का प्रचलन बहुत ही कम था। इसके पहिले के अधिकतर शिलालेख राजाओं के मिलते हैं, सामान्यजनों के नहीं। इसी कारण से ग्वालियर के आसपास गोलापूर्व जाति के लेख नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org