SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 864 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय को ही अध्यात्मयोग के भीतर गभित करने लगे. अहिंसा प्रतिपादन में उनका निम्न पद्यांश महत्त्व रखता है : षटकाय जीव न हनन ते, सब विधि दरब हिंसी टरी।" क्योंकि बनारसी के शब्दों में छोटे बड़े जीव सब एक हैं, यथा : ज्ञान नयन तें देखिए दीन हीन नहिं कोई / अत: दौलतराम आगे बढ़ते हैं. वे संसार के चक्र में भौतिकता अर्थात् मिथ्याभाव में उलझे हुए प्राणी को संतोष, सुख अर्थात् निराकुलता का वास्तविक मार्ग इन शब्दों में दिखा रहे हैं आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये / आकुलता शिव मांहि न ताते शिव मग लाग्यो चहिये / / इस शिव-मग में ही शाश्वत कल्याण होगा. न कि पश्चिमी भौतिकता-प्रचुर मिथ्यापूर्ण, असंतोषदायक जड़ता में. भला कोयला, लोहा और सीमेन्ट आदि जड़ चीजें चैतन्यपुंज आत्मा को क्या दे सकती हैं ? हां, जड़ता अवश्य दे सकेंगी. इसीलिए तो अनन्त निधिधारी मानवात्मा आज जड़वादी अथवा जड़ बनता जा रहा है. उसकी बुद्धि पर परदा पड़ गया है. वह जगन्मिथ्यात्व में भूलकर अपनी अमूल्य मानव पर्याय को यों ही जड़ वस्तुओं की साधना में नष्ट कर रहा है. अतः दौलतराम जी अपनी "अनुप्रेक्षाचिंतन" में उसे जताते हुए लिखते हैं : "यौवन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी / इन्द्रीय भोग छिन-थाई, सुरधनु चपला चपलाई / सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दलेते। मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई // चहुं गति दुख जीव भरे हैं, परिवर्तन पंच करे हैं / सब विधि संसार असारा, तामे सुख नाहि लगारा / शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एकहिं तेते / सुत दारा होय न सीरी सब स्वारथ के हैं भीरी। जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला। ये तो प्रकट जुदे धन धामा क्यों हो इक मिल सुत-रामा / पल रुधिर राध मल थेली, कीकस बसादि ते मली। नव द्वार बहै घिनकारी असि देह करें किम यारी / इस प्रकार मिथ्यात्व और आत्यन्तिक जागतिकता से हमें सचेत कर हिन्दी के सुकवियों ने भारतीय जीवन में संतोष आदि सद्गुणों का अविच्छिन्न साम्राज्य फैलाया है. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.210392
Book TitleKavya me Adhyatma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushil Diwakar
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size496 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy