________________ कालिदास की रचनाओं में अहिंसा की अवधारणा 183 तो कुमारसम्भव में पार्वती की जिस कठिन तपस्या का तथा रघुवंश में राजा अज के आमरण उपवास के साथ उनके शरीर-त्याग* का जो हृदयहारी वर्णन कवि ने किया है, वह सहजतया हमें जैन धर्म में प्रतिपादित सम्यक्-तप और सल्लेखना-समाधिमरण की स्मृति कराता मिलता है। जैन धर्म एवं उसकी अहिंसा को अवधारणा के प्रति महाकवि के इस अगाध विश्वास और आदर भाव का कारण भी स्पष्ट ही है। महाकवि के समय में जैन धर्म का पर्याप्त प्रभाव था। वह हिंसाप्रधान यज्ञादिकों का विरोधी था और अहिंसा, सत्य, तप, अस्तेय और अपरिग्रह पर विशेष बल देते हए उस यग की बराइयों को सुधारने का प्रयत्न कर रहा था। इसी के फलस्वरूप यह धर्म समाज में समादरणीय स्थान प्राप्त कर सका। सम्भवतः यही कारण रहा होगा कि जैन धर्म के अहिंसा, अनेकांत, आत्मोत्सर्ग के आदर्शों के अवलोकनोपरान्त महाकवि भी इस धर्म के प्रति आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सके। सम्पादक, भाषा विभाग, पुराना सचिवालय, भोपाल (मध्यप्रदेश) 1. कुमारसम्भव : महाकवि कालिदास, 5/2 / 2. रघुवंश : महाकवि कालिदास, 8/94-95 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org