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________________ कसायपाहुडसुत्त अर्थात् जयधवलसिद्धान्त ११७ प्रकृति नाम स्वभाव का है। आनेवाले कर्म परमाणुओं के भीतर जो आत्मा के ज्ञान-दर्शनादिक गुणों के घातने या आवरण करने का स्वभाव पडता है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। स्थिति नाम काल की मर्यादा का है। कर्म परमाणुओं के आने के साथ ही उनकी स्थिति भी निश्चित हो जाती है कि ये कर्म अमुक समय तक आत्मा के साथ बन्धे रहेंगे। इसी का नाम स्थितिबन्ध है। कर्मों के फल देने की शक्ति को अनुभाग कहते हैं। कर्म परमाणुओं में आने के साथ ही तीव्र या मन्द फल को देने की शक्ति भी पड जाती है, इसे ही अनुभाग बन्ध कहते हैं। आनेवाले कर्म-परमाणुओं का आत्म प्रदेशों के साथ बन्धना प्रदेशबन्ध है। इन चारों प्रकार के बन्धोंमें से प्रकृति बन्ध और प्रदेशबन्ध का कारण योग है और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध का कारण कषाय है। मूलकर्म आठ हैं—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । यद्यपि सातवें गुणस्थान तक सभी कर्मों का सदा बन्ध होता है, पर आयु कर्म का सिवाय विभाग के अन्य समय में बन्ध नहीं होता है। इन आठों कर्मों में जो मोहनीय कर्म है, वह राग, द्वेष और मोह का जनक होने से सर्व कर्मों का नायक माना गया है, इसलिए सबसे पहले उसके दूर करने का ही महर्षियों ने उपदेश दिया है । मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-एक दर्शनमोह और दूसरा चारित्रमोह । दर्शन मोह कर्म जीव को अपने स्वरूप का यथार्थ दर्शन नहीं होने देता, प्रत्युत अनात्म स्वरूप बाह्य पदार्थों में मोहित रखता है । मोहका दूसरा भेद जो चारित्र मोह है, उसके उदय से जीव सांसारिक वस्तुओं में से किसी को अपने अनुकूल जानकर उसमें राग करता है और किसी को बुरा जानकर उससे द्वेष करता है। लोक में प्रसिद्ध क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों कषाय इसी कर्म के उदय से होते हैं। इन चारों कषायों को राग और द्वेष में विभाजित किया गया है। यद्यपि चर्णिकार ने नाना नयों की अपेक्षा कषायों का विभाजन राग-द्वेष में विस्तार से किया है, पर मोटे तौर पर क्रोध और मान कषाय को द्वेषरूप माना है क्यों कि इनके करने से दूसरों को दुःख होता है । तथा माया और लोभ को रागरूप माना है, क्यों कि इन्हें करके मनुष्य अपने भीतर सुख, आनंद या हर्ष का अनुभव करता है। प्रस्तुत कषायपाहुड ग्रन्थ में पूर्वोक्त १५ अधिकारों के द्वारा मोहनीय कर्म के इन ही राग, द्वेष, मोह, बन्ध, उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशमन और क्षपण आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है । यहांपर उनका संक्षेप से वर्णन किया जाता है। १.प्रेयो-द्वेष-विभक्ति-किस किस नय की अपेक्षा किस किस कषाय में प्रेय (राग) या द्वेष का व्यवहार होता है ? अथवा कौन नय किस द्रव्य में द्वेष को प्राप्त होता है और कौन नय किस द्रव्य में प्रिय (राग) भाव को प्राप्त होता है ? इन आशंकाओं का समाधान किया गया है कि नैगम और संग्रह नय की अपेक्षा क्रोध द्वेषरूप है, मान द्वेषरूप है। किन्तु माया प्रेयरूप है और लोभ प्रेयरूप है । व्यवहार नय की अपेक्षा क्रोध, मान, माया, ये तीन कषाय द्वेषरूप हैं और लोभ कषाय रागरूप है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा क्रोध द्वेषरूप है, मान नो-द्वेष नो-रागरूप है, माया नो-द्वेष नो-रागरूप है और लोभ रागरूप है। शब्द नयों की अपेक्षा चारों कषाय द्वेषरूप है, तथा क्रोध, मान, माया कषाय नो-रागरूप है और लोभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210378
Book TitleKashaypahud sutta arthat Jaydhaal Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size976 KB
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