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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ नैयायिक-वैशेषिक लोग अदृष्ट को आत्मा का गुण मानते हैं। उनका कहना है कि हमारे किसी भी भले या बुरे कार्य का संस्कार हमारी आत्मा पर पडता है और उससे आत्मा में अदृष्ट नाम का गुण उत्पन्न होता है। यह तब तक आत्मा में बना रहता है जब तक कि हमारे भले या बुरे कार्य का फल हमें नहीं मिल जाता है । ११६ सांख्य लोगों का कहना है कि हमारे भले बुरे कार्यों का संस्कार जड प्रकृति पर पडता है और इस प्रकृतिगत संस्कारसे हमें सुख - दुःख मिला करते हैं । बौद्धों का कहना है कि हमारे भले-बुरे कार्योंसे चित्त में वासनारूप एक संस्कार पडता है, जो कि आगामी काल में सुख-दुःख का कारण होता है । इस प्रकार विभिन्न दार्शनिकों का इस विषय में प्रायः एक मत है कि हमारे भले-बुरे कार्यों से आत्मा में एक संस्कार पडता है और यही हमारे सुख-दुःख, जीवन-मरण और संसारपरिभ्रमण का कारण है । परन्तु जैन दर्शन कहता है कि जहां इस जीवके भले-बुरे विचारों से आत्मा में संस्कार पडता है, वहां उसके साथ ही एक विशेष जाति के सूक्ष्म पुद्गल - परमाणुओं का आत्माके साथ सम्बन्ध भी होता । आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार की ९५ वीं गाथा में कहा है कि जब रागद्वेष से युक्त आत्मा शुभ या अशुभ कार्य में परिणत होता है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि भावों से परिणत होकर आत्मा में करती है और आत्मा के साथ बन्धकर कालान्तर में सुख या दुःखरूप फल को देती है । उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि संसार के परिभ्रमण और सुखदुःख देने का कारण कर्मबन्ध है और कर्म-बन्ध का कारण रागद्वेष है । राग-द्वेष का दूसरा नाम प्रेयोद्वेष या कषाय है इसीलिए इस ग्रन्थ के दोनों नामों का उल्लेख मूल ग्रन्थकार गुणधराचार्य ने और चूर्णिकार यति वृषभाचार्य ने किया है । कर्म का स्वरूप और कर्म-बन्ध के कारण 6 'कर्म' शब्दकी निरुक्ति के अनुसार जीव के द्वारा की जानेवाली भली या बुरी क्रिया को कर्म कहते हैं । ईसका खुलासा यह है कि संसारी जीवकी प्रति समय जो मन वचन कायकी परिस्पन्द ( हलन चलन ) रूप क्रिया होती है उसे योग कहते हैं । इस योग - परिस्पन्द से सूक्ष्मकर्म-परमाणु जो सारे लोक में सघनरूप से भरे हुए हैं । आत्मा की ओर आकृष्ट होते है और आत्मा के राग-द्वेषरूप कषाय भावों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ संबद्ध हो जाता है । कर्म परमाणुओं का आत्मा के भीतर आना आस्रव कहलाता है और उनका आत्मा के प्रदेशों के साथ बन्ध जाना बन्ध कहलाता है । कर्मों के आस्रव के समय यदि कषाय तीव्र होगी तो आस्रव बन्धनेवाले कर्मों की स्थिति भी लम्बी होगी और रस-परिपाक भी तीव्र होगा । यद्यपि इसमें कुछ अपवाद हैं, तथापि यह एक साधारण नियम है । बन्ध के भेद- - इस प्रकार योग और कषाय के निमित्त से आत्मा के साथ कर्म परमाणुओं का जोबन्ध होता है, वह चार प्रकार का है -- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210378
Book TitleKashaypahud sutta arthat Jaydhaal Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size976 KB
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