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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि गिना है । वीर प्रभु ने सर्वदा और सर्वथा क्रोध के शमन पर बल दिया है। तम्हा अतिविज्जो नो तम्हा अतिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि त्ति बेमि । विद्वान् पुरुष क्रोध से आत्मा को संज्वलित न करें। भगवान् महावीर का आदेश है - अकहो होइ चरे भिक्खु, न तेसिं पडिसंजले । सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खु न संजले ।। यदि कोई भिक्षु को अपशब्द कहे तो भी वह क्रोध न करे । क्रोधालु व्यक्ति अज्ञानी होता है। आक्रोश में भी संचलित न हो । “रखेज कोहं" क्रोध से अपनी रक्षा करे - यही धर्म श्रद्धा मार्ग है । देवेन्द्र नमिराजर्षि से कहते हैं- “ अहो ते निजिओ कोहो” आश्चर्य है कि तुमने क्रोध को जीत लिया । " प्रवचन माता" में भाषा समिति में भी कहा है। कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया हासे भए मोहरिए विकहासु तहेव य । ( उत्तराध्ययन २४ - ६ ) क्रोध विजय से जीव शांति को प्राप्त होता है । क्रोध - विजय वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता । क्रोधादि परिणाम आत्मा को कुगति में ले जाते हैं । क्रोध चार प्रकार का होता है - अनन्तानुबन्धी (अनन्त) अप्रत्याख्यानावरण (कषाय विरति से अवरोध के कारण ) प्रत्याख्यानावरण ( सर्व विरति का अवरोध करने वाला) और संज्वलन (पूर्ण चरित्र का अवरोध करने वाला) यह भी कहा है“क्रोधः कोपश्च रोषश्च एष भेदस्त्रिधा मतः” । ठाणांग में पुनः - चउविहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा - आभोगणिव्यत्तिते, १०० Jain Education International अणाऽ भोगणिव्यत्तिते उवसंते, अणुवसंते एवं रइयाणं जाव वैमाणियाणं । चार प्रकार का - आभोग निवर्तित- स्थिति को जानने वाला, अनाभोग निवर्तित- स्थिति को न जानने पर, उपशान्त (क्रोध की अनुदयावस्था) अनुपशान्त (क्रोध की उदयावस्था) (४-८८) । क्रोध १८ दोषों में तृतीय दोष है - सांसारिक वासना का अभाव कषाय का क्षय करता है - केशीकुमार के प्रश्न पर गणधर गौतम कहते हैं- “ कसाय अग्गिणो वुत्ता सुय-सील - तवो जलं” क्रोध रूपी कषाय अग्नि को बुझाने की श्रुत, शील, तप रूपी जल है। यही नहीं प्रभु तो यहां तक कहते हैं कि क्रोधी को शिक्षा प्राप्त नहीं होती । चौदह प्रकार से आचरण करने वाला संयत मुनि भी अविनीत है - यदि वह बार-बार क्रोध करता है, और लम्बी अवधि तक उसे बनाए रखता है । महावीर स्वामी कहते हैं क्रोध विजय से जीव शान्ति प्राप्त करता है । क्रोध मनुष्य के पारस्परिक प्रेम और सौमनस्य को समाप्त करता है - कोहो पीइं पणासेइ ( वह आत्मस्थ दोष है - वैर का मूल, घृणा का उपधान" । क्रोध के अनेक कारणों का भी आगमों में उल्लेख है। उसकी उत्पत्ति क्षेत्र, शरीर, वास्तु और उपधि से होती है - क्षेत्र अधर्मत् भूमि की अपवित्रता, शरीर अर्थात् कुरूप, अंग-दोष, वास्तु गृह से और उपधि का अर्थ है उपकरणों के नष्ट होने से । अन्य प्रकार से उसके दस हेतु हैं - मनोज्ञ का अपहरण, उसके अतीत व वर्तमान और भविष्य की आशंका। आचार्य और उपाध्याय से मिथ्यावर्तन का भय आदि । (ठाणं) भगवान् बुद्ध ने तीन प्रकार के मनुष्यों का उल्लेख किया है- एक वे हैं, जिनका क्रोध प्रस्तर पर उत्कीर्ण रेखा की भांति दीर्घ काल तक रहता है। दूसरे वे हैं, जिनका क्रोध पृथ्वी पर खिंची रेखा के समान अल्पकालीन होता है और तृतीय प्रकार के वे हैं जिनका क्रोध जल पर खिंची रेखा के सदृश होता कषाय : क्रोध तत्त्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210376
Book TitleKashay Krodh Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanmal Lodha
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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