SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अकल्याण है। क्रोध मुनियों के गुण को भी समाप्त कर देता है । मनुस्मृति में क्षमा को दस लक्षणों में परिगणित किया है और विद्वान् की शुद्धि का कारण क्षमा बताया है । व्यवहार में मनु ने क्रुद्ध के प्रति भी क्रोध न करने का आचरण की पवित्रता बतायी है। विदुरनीति में विदुर कहते हैं: अव्याधिजं कटुकं शीर्ष रोगं, पापानुबन्धं परुषं तीक्ष्णमुष्णम् । एता पेयं यत्र पिबन्त्य सन्तो, मन्युं महाराजमिव प्रशाम्य । । क्रोध बिना व्याधि के उत्पन्न होने वाला, बुद्धि को विकृत करने वाला, कठोर, कुकर्मों की ओर ले जाने वाला, ताप देने वाला होता है । पुनः “ कामश्च राजन् क्रोधश्च तौ प्रज्ञानं विलुम्पतः” - काम व क्रोध ज्ञान को नष्ट कर देते हैं । विदुर पुनः कहते हैं । क्रोध, लक्ष्मी और अहंकार सर्वस्व का नाश करते हैं। अपना कल्याण चाहने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम क्रोध पर विजय पाता है। पंडित वह है जो क्रोध को आत्मबोध और जीवन के उद्देश्य में बाधा नहीं पहुँचाता। इसलिए धैर्य पूर्वक काम - क्रोध रूपी मगरमच्छों से पूर्ण संसार रूपी नदी को पार करना है । भर्तृहरि ने नीति शतक (२१) में कहा है - “ क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं किमरिभिः क्रोधोस्ति चेद्देहिनां” ' अर्थात् क्षमा को कवच की आवश्यकता नहीं और क्रोधी को शत्रुओं की, क्योंकि उसके तो अनेक शत्रु होंगे ही। क्रोध मानव संहार का कारण है । इसी से कहा है – “जहां क्रोध तहं काल है" । “क्रोधो वैवस्वतो राजा" । क्रोध यमराज है । पुनः धीर पुरुषों के लक्षण में बताया है जिसका चित्त क्रोध रूपी अग्नि से ज्वलित नहीं होता - वही धीर है - "चित्तं न निर्दहति कोपकृशानुतापः” । बौद्ध धर्म में भी क्रोध का पूर्ण निषेध गौतम बुद्ध ने किया है। धम्म पद में “क्रोध वग्गो” के अंतर्गत उन्होंने कहा कषाय : क्रोध तत्त्व Jain Education International 1 जैन संस्कृति का आलोक क्रोधं जहे विप्प जहेच्यं मानं संयोजनं सव्वमत्तिक्कमेय्यी तं नाम रूपस्मिं अस मानं अकिंचनं ना नुपतत्ति दुक्खा (२२१) व्यक्ति को क्रोध, अभिमान का पूर्ण त्याग करना चाहिए। नाम रूप से निरस्त आसक्ति का त्याग करने से दुःख का निरोध होता है । वे पुनः कहते हैं " अक्कोधेन जिने कोधं", क्रोध का निरोध करो। उनका स्पष्ट कथन है - "यो वे उप्पतितं कोधं रथ भन्त वधारये" क्रोध को विजय करने वाला उस सारथी के समान है जो अपने रथ को नियन्त्रण में रखता है। यही नहीं उन्होंने वाणी के संयम, शब्दों के नियन्त्रण, असत्य भाषण, को भी त्यागने को कहा है - " वचीय कोपं रक्खेय्य वाचाय संवितोसिया” (२३२) ऐसे ही मनुष्य सर्वदा अपने को सर्वभावेन नियन्त्रण में रखते हैं । बुद्ध मत के विज्ञानवाद में क्रोध को उपक्लेश गिना है - मूल क्लेश नहीं । क्लेश रागादि से असंप्रयुक्त अविद्या मात्र है (बौद्ध धर्म-दर्शन पृ. ३३६) क्रोध की परिभाषा इस प्रकार है “व्यापाद हिंसा से अन्य सत्व असत्व का आघात" है । - - संस्कृत के कवियों ने अपने महाकाव्यों में यथा अवसर क्रोध और क्रोधी की भर्त्सना की है । किरातार्जुनीय में कहा है - अवन्ध्य कोपस्य विहन्तुरापदो भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः । अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुः मान न जातहार्देन न विद्विषादरः । । (२-३३) For Private & Personal Use Only उत्तररामचरित में भवभूति का भी यही मत है । उत्साह वीर पुरुष का भूषण है पर क्रोध के अभिभूत हो कर्तव्यच्युत होकर वह कदाचार करना प्रारंभ कर देता है । प्रलाप में उसके कथन में न संगति रहती है और न औचित्य । क्रोध रूपी अज्ञान को नष्ट करना सर्वाधिक आवश्यक है। जैन धर्म में तो क्रोध को प्रथम कषाय ६६ www.jainelibrary.org
SR No.210376
Book TitleKashay Krodh Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanmal Lodha
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy