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विद्याभूषण पं. के. भुजबली शास्त्री
सम्पादक 'गुरुदेव' मूडबिद्री
कर्णाटक के जैन शासक
दक्षिण भारत से जैनधर्म का सम्बन्ध सुप्राचीन काल से है. भागवत के कथानुसार भगवन् ऋषभदेव का बिहार कर्णाटक के कोंक, बैंक, कुटकादि प्रदेशों में भी हुआ था. कोंक से वर्तमान कोंकण और कुटक से कोडगु का सम्बन्ध है. इस बात को में अन्यत्र' सप्रमाण सिद्ध कर चुका हूँ. उधर बौद्धों के प्रामाणिक ग्रंथ महावंशादि से भी दक्षिण में जैनधर्म का अस्तित्व सुदीर्घ काल से सिद्ध होता है. द्वारिका के नाश को पहले ही जानकर, भगवान् नेमिनाथ के पल्लव देश में जाने का उल्लेख, जैनागमों में स्पष्ट अंकित है. यों तो ई० पूर्व चौथी शताब्दी सम्बन्धी श्रुतकेवली भद्रबाहु की दक्षिणयात्रा की घटना को प्रायः सभी इतिहासज्ञ स्वीकार करते हैं. खैर, अब प्रस्तुत विषय पर आएं. तमिलु प्रान्त में, पांड्यों की राजधानी मधुरा जैनों का केन्द्र रहा. पांड्य नरेश जैन धर्मानुयायी थे. खारबेल के शिलालेख से विदित होता है कि उनके राज्यभिषेक के शुभावसर पर तत्कालीन पांडय नरेश ने धान्यों से भरे हुए कतिपय जहाजों को भेंट रूप से उन्हें भेजा था. इस पांड्य वंश की एक शाखा दक्षिण कन्नड जिलान्तर्गत बारकूर में भी राज्य करती रही. तमिलु ग्रंथ नालडियार से ज्ञात होता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ उत्तर से दक्षिण में जो एक विशाल मुनिसंघ आया था, उस संघ के हजारों विद्वान् मुनि धर्मप्रचारार्थ इसी तमिलु प्रान्त में आकर रह गये थे. आचाय पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने लगभग पांचवी शती में मधुरा में एक विशाल जैनसंघ को स्थापित किया था. कतिपय विद्वानों की राय से सुप्रसिद्ध कुरल ग्रंथ के रचयिता, जैनों के प्रातः स्मरणीय आचार्य कुंदकुंद ही है. सर वाल्टर इलियट के मत से दक्षिण में कला-कौशल एवं साहित्य पर जैनों का काफी प्रभाव पड़ा है. कालवेन ने भी लिखा है कि-जैनों की उन्नति का युग ही तमिलु साहित्य का महायुग है. एक जमाने में सारे दक्षिण भारत में जैनधर्म का गहरा प्रभाव था. श्री शेषगिरिराव के अभिप्राय से वर्तमान विशाखपट्टण, कृष्ण, नेल्लूर आदि प्रदेशों में जैनधर्म विशेष रूप से फैला था. फिर भी कर्णाटक के इतिहास में जैनधर्म का जो महत्त्वपूर्ण स्थान सुरक्षित है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है. कर्णाटक में ई० पू० से ही जैनधर्म मौजूद था. मान्य अन्वेषक विद्वानों की राय से श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ ही कर्णाटक में जैनधर्म का आगमन हुआ. किन्तु कतिपय विद्वानो की यह भी राय है कि भद्रबाहु की यात्रा के पूर्व भी दक्षिण में जैनधर्म अवश्य रहा होगा. अन्यथा श्रुतकेवलीजी को इतने बड़े संघ को इस सुदूर दक्षिण में लिवा लाने का साहस कभी नहीं होता. अपने अनुयायी भक्तों से भरोसे पर ही उन्होंने इस गुरुतर काम को किया होगा. शिलालेखों से पता चलता है कि मौर्य और आंध्र वंश के पश्चात् कर्णाटक में राज्य करने वाले कदंब और पल्लव वंश के शासक भी जैन धर्मावलंबी थे. खासकर बनबासि के प्राचीन कदंब और पल्लवों के बाद तोलव (वर्तमान दक्षिण कन्नड ज़िला) में राज्य करने वाले चालुक्य निःसन्देह जैन धर्मानुयायी थे. चालुक्यों ने अनेक देवालयों को दान दिया है.
१. देखो इससे सबन्धित लेखक का निबन्ध.
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