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ऐरावत-छबि
कुन्दन लाल जैन श्रुतकुटीर, विश्वास नगर, दिल्ली
"दिल्ली-जिन-ग्रन्थ-रत्नावली" के लिए जब दिल्ली के ग्रन्थ भण्डारों का सर्वेक्षण कर रहा था तो किसी गुटके में उपर्युक्त शीर्षक से एक अष्टछन्दी रचना प्राप्त हुई, रचना पं० रूपचन्द्रजी (सं० १६५० के लगभग) के पंचमंगल पाठ में से जन्ममंगल के ऐरावत की भांति ही गणित वाली थी, जिसे कभी बचपन में याद किया था, उपलब्ध रचना अच्छी लगी सो अपने संग्रह में सँजोकर रख ली थी।
__ अब सेवा निवृत्ति के बाद जब अपनी सामग्री को पुनः व्यवस्थित करने का विचार आया तो "ऐरावत-छबि" सहसा हाथ लग गई। चूंकि रचना सुपुष्ट और सुन्दर है अतः उस पर लेख लिखने को सोच रहा था कि सहसा श्री बहादुर चन्द्र जी छावड़ा का लेख "भारतीय कला में हाथो" पढ़ने में आया जिसमें उन्होंने जावाद्वीप के चाय बागान में एक बड़े भारी विस्तृत शिला-खंड पर विशाल हस्ति-चरण युगल के उत्कीर्ण होने का उल्लेख किया है और दोनों हस्ति-चरणों के बीच संस्कृत की एक पंक्ति भी उत्कीर्ण है जिसका भाव है कि "ये हस्ति चरण महाराज पूर्णवर्मन् (५वीं सदी ) के हाथी 'जयविशाल' के हैं जो इन्द्र के ऐरावत के समान वैभवशाली एवं आकार-प्रकार वाला था"।
____जावा के उपर्युक्त पुरातत्त्वीय अभिलेख ने मस्तिष्क की नसों को और अधिक उद्दीप्त किया तथा ऐरावत पर और अधिक अध्ययन के लिए प्रेरित हुआ। उपलब्ध जीव-जगत् में आकार, शक्ति आदि की दृष्टि से सामान्य हाथी भी बड़ा भारी माना जाता है, पर ऐरावत की कल्पना तो मानवातीत समझी जाने लगी है। जरा ध्यान दीजिए जब तीर्थंकर का जन्म होता है तो सौधर्मेन्द्र का आसन कंपित होता है और वह अवधि ज्ञान से तीर्थंकर को अवतारणा को जानकर भी पांडुक शिला पर अभिषेक के लिए ले जाने को मायामयी ऐरावत की रचना करता है, जो आकार में एक लाख योजना का लम्बा चौड़ा होता है, उसके बड़े-बड़े विशाल सौ मुख होते हैं, जिनमें से प्रत्येक मुख में आठ-आठ दांत होते हैं, हर एक दांत पर एक-एक बड़ा भारी सरोवर होता है । प्रत्येक सरोवर में एक सौ पच्चीस, १२५ कमिलिनी होती है और प्रत्येक कमिलिनी पर पच्चीस-पच्चीस कमल होते हैं और प्रत्येक कमल में १०८-१०९ पंखुड़ियों होती हैं और प्रत्येक पंखुडो पर एक-एक अप्सरा नृत्य करती हैं।
इस तरह २७ करोड़ नृत्य करती हुई अप्सराओं सहित ऐरावत पर भगवान् को बिठा कर सौधर्मेन्द्रपांडुक शिला पर जाता है और अभिषेक करता है। इस गणित वाले ऐरावत की चर्चा पं० रूपचन्दजी व श्री नवलशाह जो वर्धमानपुराण के कर्ता हैं ने हिन्दी में की है जो लगभग सं० १६५० के आसपास विद्यमान थे, ऐसा ही वर्णन निम्न 'ऐरावत छबि' में भी है पर पुत्ताट संघीय श्री जिनसेनाचार्य ने अपने "हरिवंशपुराण' में संस्कृत में तथा श्री पुष्पदन्त ने अपने "महापुराण' में अपभ्रश में केवल अलंकारिक शैली में ही ऐरावत का वर्णन किषा है जो कवि सम्मत लगता है । इनका समय ८वीं ९वीं सदी है । श्री जिनसेनाचार्य के ऐरावत की छबि देखिए :
ततश्चंद्रावदातां गमिन्द्रस्तुंगमतंगजं । श्रृंगौघमिव हेमाद्रेर्मुक्ताधो मदनिझरं ॥ काँतरताशक्तरक्तचामरसंतति । तं यथाधित्यकाधीन रक्ताशोकमहावनं ॥ सुवर्णरिक्षयाचो| परिबेष्टितविग्रहं । तमेव च यथोपात्त कनकनकमेखलं ॥
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