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भार माना । भारहीन पर। इसी से. यही मनुष्यत्व ।
नोरांचदसणं येव, चरित्तं च तवो तहा। उसमें तप को भी सम्मिलित किया है। स्थानाङ्ग में उसके पाँच भेद- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार व वीर्याचार किए गए हैं । इन भेदों की तात्विक व्याख्या में न पड़कर यही कहना पर्याप्त है । आचार का अर्थ है - "आचर्यते इति आचार:" - आचरण ही आचार है - अर्थात् सदाचार | हलायुध कोश के अनुसार "विचार" भी आचार का ही एक रूप है । भारतीय मनीषियों ने "आचारः प्रथमो धर्मः" कह कर उसे प्रथम धर्म माना । भगवान महावीर के अनुसार भी: "आचारः प्रभवो धर्म:"- आचारहीन मनुष्य कभी पावन नहीं होता क्योंकि "आचारात् प्राप्यते विद्या"। मनु का स्पष्ट कथन है - "सर्वस्य तपसो मूलाचारं जगृहुः परम् । आचार ही सदाचार है । मानवीय नीतिबोध ही आचार है : नीति शब्द णीञ् (प्रापणे) इस धातु से “अधिकरण" अथवा "करण" इस अर्थ में "क्तिन्" प्रत्यय जोड़कर व्युत्पन्न होता है । "नी" का अर्थ है "ले जाना" | मनुष्य को सत्य दिशा की ओर ले जाना ही नीति का अर्थ है - नयनान्नीतिरुच्यते । नयन व्यापार करता है - ले जाता है दुष्प्रवृत्तियों से सद्प्रवृत्तियों की ओर - व्यक्ति को लोकमंगल की ओर | नीति ऐहिक और पारलौकिक कल्याण का साधन है । वेद के अनुसार - ऋजु नीतिनो वरुणो मित्रो नय तु विद्वान् (१-९०-१) | मित्र वरुण हमें कुटिलता रहित नीति का सुफल दें। अब जैन धर्म में आचार के व्यावहारिक स्वरूप को देखें । भगवान महावीर ने मनुष्यत्व को ही प्रधानता दी । महावीर के अनुसार प्राणियों के लिए चार अंग दुर्लभ हैं - मनुष्यत्व, सद्धर्म, श्रद्धा और संयम । उदाहरण लें - उत्तराध्ययन का कथन है “एवं भाणुस्सगकामादेवकामाण अन्तिए (७-१२) वे कहते हैं देवताओं में कामभोग मनुष्य से हजार गुणा अधिक है । जैन धर्म के अनुसार मनुष्यत्व ही मानवीय नैतिकता का मूलाधार है: चारित्र, त्याग, दया, प्रेम, और सेवा ही मनुष्यत्व के मापदण्ड हैं । भगवान महावीर ने अपने
अन्तिम प्रवचन में मानवीय जीवन की सर्वोच्चता बताते हुए कहा - "माणुस्सं खु सु दुल्लहं", मनुष्य जीवन बड़ा दुर्लभ है । उन्होंने बतायापारसका चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा, संजयमि य वीरियं ।। (उत्तराध्ययन ३-१). मनुष्य से महत्वपूर्ण मनुष्यता है - वही जीवन का अलभ्य वरदान है । उन्होंने बल दिया प्रकृतिभद्रता, मन, वचन और क्षमा की सरलता - कर्तव्यनिष्ठा और सत्य की आन्तरिक सच्ची अनभति पर | इसी से विश्व चेतना का विकास सम्भव है - और यही मानव धर्म है, यही मनुष्यत्व है, इससे ही आत्मदर्शन सम्भव है । भगवान महावीर मनुष्यों को "देवाणुप्पिय" कहकर सम्बोधित करते थे । आचार अमितगति के अनुसार - मनुष्यं भव प्रधानम्" मानुष सत्य ही सर्वश्रेष्ठ है । जैन धर्मानुयायी इस मनुष्यत्व की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता है
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ
सदायमात्मा विदधातु देवः । भारतीय धर्म साधना का यही परम लक्ष्य है - 'मनुर्भव' । मनुष्य बनो । वैदिक आदेश है - "ज्योतिर्गतः पथोरक्षः धिया - कृतान्" । बुद्धि से परिष्कृत ज्योतिमार्ग की रक्षा कर "मानुमन्बिहिं - प्रकाश पथ पर चल । यह प्रकाश पथ तभी मिलता है जब बिना किसी भेदभाव के सभी जीवों के साथ मैत्री, करुणा और समता से तादात्म्य हो । जो जीव-व्यक्ति सर्वात्मभूत है - सब प्राणियों को अपने हृदय में बसाकर विश्वात्मा बन गया है, उसके लिए न तो अन्धकार है - और न पाप ।
सव्व भूयप्प भूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ। पिहिआसवस्स दं तस्स पावकम्मं न बंधइ - दशवैकालिक ४ इस विराट सत्य की उपलब्धि तभी हो सकती है, जब व्यक्ति में आत्मिक समानता हो । मेरी दृष्टि में यही महावीर का प्रथम सिद्धान्त है | समता का बोध ही धर्म है -
समियाएं धम्मो आरएहि पवेइए । यही समत्व जीवन के सारे वैषम्य को समाप्त कर अहिंसा का सात्विक उद्रेक करता है । महावीर ने मनुष्य को आत्मनिर्णय और आत्मानुशासन का अधिकार दिया । उन्होंने आत्मवाद के साथ-साथ सापेक्षता (स्याद्वाद) की राह बतायी । प्रेम, मैत्री, करुणा, प्रमोद, अपरिग्रह का यही रहस्य है। मनुष्य में इन सद्गुणों के विकास के लिए आवश्यक है कि वह हिंसा, प्रमाद, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, घृणा, क्रोध आदि से मुक्त हो । कषाय जीवन की ऊर्ध्व गति और उसके विकास में बाधक हैं। महावीर ने न
जोधपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति । १९५९ से १९७९ तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी के संकायाध्यक्ष एवं सांस्कृतिक भाषा मंडल के अध्यक्षा राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के कार्य विकास के संसाधनों व विधियों की अनुशंसा के लिए | गठित एक व्यक्ति जांच आयोग
में नियुक्त । कई विश्व विद्यालयों प्रो. श्री कल्याणमल लोढा के सलाहकार तथा विशेषज्ञ के
रूप में कार्य किया । कई शैक्षिक प्रवृत्तियों व संस्थाओं से सम्बद्ध । कई राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं से सन्मान एवं पुरस्कार प्राप्त । भारतीय आधुनिक साहित्य पर लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान, लेखक, कुशल-वक्ता । कई विश्वविद्यालयों के सेमीनारों में विस्तार से भाषण । सम्प्रति - २-ए, देशप्रिय पार्क ईस्ट, कलकत्ता - ७०० ०२९.
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
देव सदा अरिहन्त को, ध्यावे जो दिन राज । जयन्तसेन जनम सफल, दुष्कर्मोका घात ।।
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