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________________ २३० ऋषिभाषित और पालि जातक में प्रत्येक-बुद्ध की अवधारणा आर्यत्व की प्राप्ति के रूप में मुक्ति की कल्पना करते थे। उत्कट शीर्षक से भौतिकवादी ऋषियों की चर्चा है, जो आत्मा, पुनर्जन्म, पाप, पुण्य, आदि का भेद स्वीकार नहीं करते थे और विविध रूपों में सुखवाद का उपदेश देते थे। गाथापतिपुत्र तरुण अज्ञानता को ही परम दुःख कहते थे और मुक्ति के लिये ज्ञानमार्ग का उपदेश देते थे। यह रोचक है कि इनकी ज्ञान की अवधारणा अत्यन्त विस्तृत तथा उदार थी और इसमें औषधियों का विन्यास, संयोजन और मिश्रण तथा विविध साधनाओं की साधना भी समाविष्ट थी। गर्दभाल (दगभाल) के उपदेश में हिंसा रहित होने की चर्चा है । ये भी ज्ञान और ध्यान के ही उपदेशक थे। रामपुत्त संसार-विमुक्ति के लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पालन का उपदेश देते थे और कर्मरज से मुक्ति के लिये तप का विधान करते थे। हरिगिरि के सिद्धान्त में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद के समन्वयक के रूप में कर्म-सिद्धान्त को प्रस्तुत किया गया है। अम्बड परिव्राजक अपनी आचार परम्परा के कारण ही चचित हुये। मातङ्ग जन्म के आधार पर वर्ग भेद स्वीकार नहीं करते थे और आध्यात्मिक कृषि पर बल देते थे। वारत्तक अकिंचनता को श्रमणत्व का आदर्श मानते थे। आर्द्रक भी कामभोगों को सभी दुःखों के मूल में देखते थे। वर्द्धमान का भी अर्हत् ऋषि के रूप में उल्लेख है। वे इन्द्रिय और मन के संयम पर बल देते हैं और कर्म रज के आस्रव, निरोध आदि की प्रक्रिया समझाते हैं । वायु के उपदेश में भी कर्म-सिद्धान्त का निरूपण है और बीज के अंकुरित होने से उसकी उपमा दी गयी है। पार्श्व नामक अर्हत् ऋषि लोक को शाश्वत मानते हुये भी इसे पारिणामिक या परिवर्तनशील कहते थे और पुण्य-पापको जीवन का स्वकृत्य स्वीकार करते हये मुक्ति के लिये चातुर्याम का उपदेश देते थे। पिंग भी आध्यात्मिक कृषि के ही उपदेशक थे और आत्मा को क्षेत्र, तप को बीज, संयम को नंगल और अहिंसा तथा समिति को बैल मानते थे। महाशालपुत्र अरुण के उपदेश में संसर्ग का सर्वाधिक प्रभाव स्वीकार करते हुये कल्याण मित्रता पर बल दिया गया है। ऋषिगिरि के वचन में सहनशीलता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुण है। उद्दालक क्रोधादि कषायों को सांसारिक बन्धन का कारण बताते थे और क्रोध, अहंकार, माया, लोभ इत्यादि से विरति का उपदेश देते थे। नारायण (तारायण) के उपदेश में भी क्रोध को ही प्रधान दोष स्वीकार किया गया है। श्रीगिरि एक प्रकार से शाश्वतवादी थे उनके आचार में वैदिक कर्मकाण्ड का समर्थन झलकता है । सारिपुत्र नामक अर्हत् बुद्ध ऋषि को अतिवर्णना और मध्यम मार्ग की साधना से जोड़ा गया है। संजय हर प्रकार के पाप कर्म से विरत रहने का उपदेश देते हैं । द्वैपायन (दीवायण) इच्छाओं के दमन की बात करते हैं और उसी को सुख का मूल मानते हैं । इन्द्रनाग (इंदनाग) भी विषय-वासना से मुक्ति की चर्चा करते हैं और मुनि को विभिन्न प्रकार की विद्याओं के आश्रय, भविष्यकथन आदि द्वारा आजीविका प्राप्ति से बचने की सलाह देते हैं। सोम के उपदेश में निरन्तर आध्यात्मिक विकास के लिये प्रयत्नशील रहने का उद्बोधन है । यम लाभ-हानि से अप्रभावित रहने को ही श्रेष्ठ गुण मानते हैं। वरुण भी रागद्वेष से अप्रभावित होने का उपदेश देते हैं और वैश्रमण के वचन में अहिंसा के पालन पर बल है। १. ४५ प्रत्येक-बुद्धों के विस्तार के लिये देखिये, सं० वाल्थेर शूबिंग : इसिभासियाई; एवं जैन, सागरमल : ऋषिभाषित एक अध्ययन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210308
Book TitleRushibhashit aur Palijatak me Pratyek Buddha ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Gond
PublisherZ_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf
Publication Year1991
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size2 MB
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