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________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ५१ विधानका यद्यपि बहुत अंशों में असर भी हुआ। लेकिन धीरे-धीरे ऐसे अपराधी लोगोंकी संख्या बढ़ती ही गई । साथ ही उनमें कुछ धृष्टता भी आने लगी । तब इस दंडविधानको निरुपयोगी समझकर इससे कुछ कठोर "मा" नामक दंडविधान तैयार किया गया । अर्थात् खेद प्रकाश करने मात्रसे जब लोगोंने जीवन संचालनकी साधन-सामग्रीका संचय करना नहीं छोड़ा, तो उन्हें इस अनुचित प्रवृत्तिसे शक्तिपूर्वक रोका जाने लगा । अन्त में जब इस दंडविधान से भी ऐसे अपराधी लोगोंको बाढ़ न घटी तो फिर 'धिक्' नामका बहुत ही कठोर दंडविधान लागू कर दिया गया । अर्थात् ऐसे लोगों को उस समयकी सामाजिक श्रेणीसे बहिष्कृत किया जाने लगा, लेकिन यह दंडविधान भी जब असफल होने लगा, साथ ही इसके द्वारा ऊँच और नीचके भेदकी कल्पना भी लोगों के हृदय में उदित हो गई तो इस विषम परिस्थितिमें राजा नाभिके पुत्र भगवान् ऋषभदेव इस पृथ्वीतलपर अवतीर्ण हुए । इन्होंने बहुत ही गम्भीर चिन्तनके बाद एक ओर तो कर्मयुगका प्रारम्भ किया अर्थात् तत्कालीन मानव-समाजमें वर्णव्यवस्था कायम करके परस्पर सहयोगकी भावना भरते हुए उसको जीवन-संचालनके लिए यथायोग्य असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य आदि कार्योंके करने की प्रेरणा की तथा दुसरी ओर लोगोंकी अनुचित प्रवृत्तिको रोकने के लिए धार्मिक दंडविधान चालू किया । अर्थात् मनुष्योंको स्वयं ही अपनी--क्रोध, मान, माया और लोभरूप-मानसिक दुर्बलताओं को नष्ट करने तथा हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह स्वरूप प्रवृत्तिको अधिक-से-अधिक कम करनेका उपदेश दिया । जैन-मान्यता के अनुसार धर्मोत्पत्ति का आदि समय यही है । धर्मोत्पत्तिके बारेमें जैन-मान्यता के अनुसार किये गये इस विवेचनसे इस निष्कर्षपर पहुँचा जा सकता है कि मानव समाज में व्यवस्था कायम करनेके लिए यद्यपि सर्वप्रथम पहले प्रजातंत्र के रूपमें और बादमें राजतंत्र के रूप में शासनतंत्र ही प्रकाशमें आया था । परन्तु इसमें अधूरेपनका अनुभव करके भगवान ऋषभदेवने इसके साथ धर्मतंत्र को भी जोड़ दिया था। इस तरह शासनतंत्र और धर्मतंत्र ये दोनों तबसे एक दूसरेका बल पाकर फूलते-फलते हुए आज तक जीवित हैं । यद्यपि भगवान ऋषभदेवने तत्कालीन मानव समाज के सम्मुख धर्मके ऐहिक और आध्यात्मिक दो पहलू उपस्थित किये थे और दूसरे ( आध्यात्मिक ) पहलूको पहले से ही स्वयं अपना कर " जनताके सामने महान् आदर्श उपस्थित किया था --- आज भी हमें भारतवर्ष में साधुवर्ग के रूपमें धर्मके इस आध्यात्मिक पहलूकी झांकी देखनेको मिलती है । परन्तु आज मानव-जीवन जब धर्मके ऐहिक पहलूसे ही शून्य है तो वहाँ पर उसके आध्यात्मिक पहलूका अंकुरित होना असम्भव ही है। यही कारण है कि प्रायः सभी धर्मग्रंथोंमें आज के समय मुक्ति प्राप्तिकी असंभवताको स्वीकार किया गया है। इसलिए इस लेखमें हम धर्मके ऐहिक पहलूपर ही विचार करेंगे । के आध्यात्मिक पहलूका उद्देश्य जहाँ जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्ति पाकर अविनाशी अनन्तसुख १. ति० प०, गाथा ४७४ । २. आदिपुराण, पर्व ३, श्लोक २१४, २१५ । ३. वही, पर्व १६, श्लोक १८३ । ४. (क) वही, पर्व १६, श्लोक १७९, १८० । (ख) प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ॥ स्वयंभूस्तोत्र । ५. विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः ॥ - स्वयंभूस्तोत्र श्लोक ३, ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210305
Book TitleRushabhdev se Vartaman tak Jain Dharm ki Sthiti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size660 Kb
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