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________________ ५० : सरस्वती-वरदपुत्र ६० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कल्पका दुसरा विभाग अवसर्पिणीकाल चालू है और उसके (अवसर्पिणी कालके) पाँचवें दुःषमा नामक विभागमेंसे हम गुजर रहे हैं।' आजसे करीब ढाई हजार (२५००) वर्ष पहले इस अवसर्पिणीकालका दुःषमा-सुषमा नामक चतुर्थ विभाग समाप्त हुआ है । उस समय धर्मको प्रकाशमें लानेवाले और इस अवसर्पिणीकालके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर इस धरातलपर मौजूद थे तथा उनके भी पहले पूर्वपरम्परामें तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव तक तेईस तीर्थंकर धर्मका प्रकाश कर चुके थे। तात्पर्य यह है कि जैन मान्यतामें उत्सपिणीकालके चौथे, पांचवें और छठे तथा अवसर्पिणीकालके पहले, दुसरे और तीसरे विभागोंके समदायको भोगयुग एवं अवसर्पिणीकालके चौथे, पांचवें और छठवें तथा उत्सर्पिणीकालके पहले, दूसरे और तीसरे विभागोंके समदायको कर्मयग बतलाया गया है ।२ भोगयुगका मतलब यह है कि इस युगमें मनुष्य अपने जीवनका संचालन करनेके लिए साधन-सामग्रीके संचय और संरक्षणकी ओर ध्यान देना अनावश्यक ही नहीं, व्यर्थ और यहाँतक कि मानवसमष्टिके जीवन-निर्वाहके लिए अत्यन्त घातक समझता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनका संचालन निश्चिन्तता और संतोषपूर्वक सर्वत्र बिखरे हुए प्राकृतिक साधनों द्वारा बिना किसी भेद-भावके समान रूपसे किया करता है। उस समय मानव-जीवनके किसी भी क्षेत्रमें आजकल जैसी विषमता नहीं रहती है। उस कालमें कोई मनुष्य न तो अमीर और न गरीब ही रहता है और न ऊँच-नीचका भेद ही उस समयके मनष्योंमें पाया जाता है। आहार-बिहार तथा रहन सहनकी समानताके कारण उस कालके मनुष्योंमें न तो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप मानसिक दुर्बलताएँ ही पाई जाती हैं और न हिंसा, झूठ, चोरी व्यभिचार तथा पदार्थोंका संचय रूप परिग्रहमें ही उनकी प्रवृत्ति होती है । लेकिन उत्सर्पिणी कालमें जीवन-संचालनको साधनसामग्रीमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते-होते उसके पराकाष्ठापर पहुँच जाने के बाद जब इस अवसर्पिणीकालमें उसका ह्रास होने लगा और वह ह्रास जब इस सीमा तक पहुँच गया कि मनुष्योंको अपने जीवन-संचालनमें कमीका अनुभव होने लगा तो सबसे पहिले मनुष्योंमें साधन-सामग्रीके संग्रह करनेका लोभ पैदा हआ तथा उसका संवरण न कर सकनेके कारण धीरे-धीरे माया, मान और क्रोधरूप दुर्बलताएँ भी उनके अन्तःकरणमें उदित हुई और इनके परिणामस्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी व्यभिचार और परिग्रह इन पाँच पापोंकी और यथासंभव उनका झुकाव होने लगा। अर्थात् सबसे पहले जीवन-संचालनकी साधनसामग्रीके संचय करने में जव किन्हीं-किन्हीं मनुष्योंकी प्रवृत्ति देखने में आई तो उस समयके विशेषविचारक व्यक्तियोंने इसे मानव-समष्टिके जीवन-संचालनके लिए जबरदस्त खतरा समझा । इसलिए इसके दूर करने लिए उन्होंने जनमतकी सम्मतिपूर्वक उन लोगोंके विरुद्ध 'हा' नामक दण्ड कायम किया। अर्थात उस समय जो लोग जीवन-संचालनकी साधन-सामग्रीके संचय करने में प्रवृत्त होते थे उन्हें इस दण्डविधानके अनुसार "हमें खेद है कि तुमने मानव-समष्टिके हितके विरुद्ध यह अनुचित कार्य किया है।" इस प्रकार दंडित किया जाने लगा और उस समयका मानव-हृदय बहुत ही सरल होनेके कारण उसपर इस दंड १. भगवान ऋषभदेवसे लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर इस अवसर्पिणीकालके चौथे दुःषम सुषमा काल में ही हुए हैं। २. भोगयुग और कर्मयुगका विस्तृत वर्णन आदिपुराणके तीसरे पर्वमें तथा तिलोयपण्णत्तीके चतुर्थ महाधिकार . में किया गया है। ३. तिलोयपण्णत्ती, चौथा महाधिकार, गाथा ४५१। ४. वही, गाथा ४५२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210305
Book TitleRushabhdev se Vartaman tak Jain Dharm ki Sthiti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size660 Kb
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