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॥ श्री जैन दिवाकर.म्मृति-ग्रन्थ ।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ५०२ :
किस अर्थ में प्रयोग होता है-समझा जाये । ईश्वर शब्द "ईश्" धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ स्वामी होना, आदेश देना, अधिकार में करना है । "ईश्" धातु का विशेषण ही "ईश्वर" है जो कि शक्ति सम्पन्नता की ओर इंगित करता है। अतः यह कहना औचित्यपूर्ण है कि जीव से परे जो भी सत्ता है वही "ईश्वर" है। आज के समाज में ईश्वर से सम्बन्धित सिद्धान्त ईश्वरवाद का प्रयोग व्यापक एवं संकुचित दोनों अर्थों में किया जाता है। व्यापक अर्थ में ईश्वरवाद उस सिद्धान्त को कहते हैं जो ईश्वर को सत्य मानता है। इस अर्थ की परिधि में ईश्वर सम्बन्धी सभी सिद्धान्त आ जाते हैं। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने वालों में न केवल भारतीय दार्शनिक हैं अपितु पाश्चात्य दार्शनिक भी हैं जिनमें विशेषरूप से उल्लेखनीय डेकाटें (Descartes), बर्कले (Berkeley), काण्ट (Kant), जेम्सवार्ड (James Ward), प्रिंगल पैटिसन (Pringle Pattisan) हैं। संकीर्ण अर्थ में ईश्वरवाद उस सिद्धान्त को कहते हैं जो कि एक व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर का समर्थन करता है । इस सिद्धान्त का समर्थन विशेषतः जैनधर्म तथा अन्य सगुणोपासक धर्मों ने किया है । इसी मत के पक्ष में पाश्चात्य विद्वान् फ्लिण्ट (Flient) का कथन है कि “वह धर्म जिसमें एक व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर आराधना का विषय रहता है-ईश्वरवादी धर्म कहा जाता है।" व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर व्यक्तित्वरहित ईश्वर की अपेक्षा धार्मिक भावना की सन्तुष्टि करने में अधिक समर्थ है। धार्मिक चेतना के लिये आवश्यक है कि उपासक और उपास्य के बीच निकटता रहे। इस नकट्यभाव को बनाये रखने के लिये यह अनिवार्य है कि उपासक के हृदय में उपास्य के प्रति श्रद्धा, आदर और भक्तिभाव बना रहे (जैनदर्शन एवं धर्म में भक्तिभाव को सिद्धान्ततः कोई स्थान नहीं है किन्तु व्यावहारिक जगत् में जैन समाज तीर्थंकरों के प्रति भक्तिभाव से परित है) और इसी प्रकार उपास्य भी उपासक के लिये करुणा, क्षमा, दया और सहानुभूति भाव से पूरित रहे । ईश्वर उपास्य है, मनुष्य उपासक है।
ईश्वरवाद वस्तुतः व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की स्थापना करके उपासक मनुष्य का उससे निकट
३ संस्कृत-हिन्दी कोश-वा०व० आप्टे, पृ० १७६-१८०
वाचस्पत्यम्-द्वितीय भाग, पृ० १०११-१०४८ ईश्वरवादी सिद्धान्त के प्रतिपादकों में-स्पिनोजा, जॉन कॉल्विन, जॉन टोलेण्ड, तिण्डल, लाइबनिज, ब्रेडले, रायस, हॉविसन आदि विशेष के लिए द्रष्टव्य-"ईश्वर सम्बन्धी मत" पृष्ठ-६४ से १३२ तक “धर्म-दर्शन'–डा० रामनारायण व्यास (मध्य प्रदेश हिन्दी अकादमी) बर्कले-ये अनुभववादी एवं प्रत्यक्षवादी थे । दार्शनिक जीवन के प्रारंभ में इन्हें भी ईश्वर अमान्य था किन्तु दार्शनिक जीवन के अन्त में इन्होंने ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है
तथा ईश्वर को असीम एवं परम सत्ता वाला बतलाया है। ६ काण्ट-दार्शनिक जीवन के आरम्भ में इन्होंने आत्मा और ईश्वर को अज्ञात और अज्ञ य
घोषित किया है किन्तु बाद में ईश्वर की सत्ता स्वीकार की है। "The Idea of God in Recent Philosophy." "Theistic Religion is a Religion in which the one Personal and Perfect
God is the object of worship." Flient-Theism, p.50. ६ भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० ३०३-डा० राधाकृष्णन्
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