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साधन के अभाव में साधक क्या करेगा? साध्य को प्राप्त करने है। पुण्य-सकृत में सेवा-स्वाध्याय में ज्ञान-दर्शन-चरित्र की अभिवृद्धि के लिये साधक को तत्सम्बन्धी साधनों का यथोचित उपयोग करना में, देव-गुरु की भक्ति में सद्व्यय करना लाभदायक सिद्ध हुआ है आवश्यक है। भले साध्य-भौतिक हो या अध्यात्म/स्वर्ग हो या और मुक्ति का हेतु माना है। अपवर्ग । तदनुसार ऐन्द्रिय शक्ति को भी आवश्यक साधन माना है। अन्याय-अनीति में, हिंसा-हत्या में, चोरी, शिकारी, भ्रष्टाचार. जिनके द्वारा देहधारी भले वे विकसित हों या अविकसित, मूक हों या अनाचार मार्गों में शक्ति के स्त्रोतों का दुरुपयोग-दखवर्धक, वधरूप अमूक, समनस्क हों या अमनस्क अर्थात-प्राण-जीव-सत्व सभी उन्हीं एवं अधोगति का प्रतीक माना है। मतलब यह कि संगति किंवा दर्गति इन्द्रियों के माध्यम से अपनी कायिक-वाचिक और मानसिक में जीवात्माओं को धकेलने में इन्द्रियाँ भी कारण भूत रही हैं । इन्द्रियाँ आवश्यकताओं की आंशिक पूर्ति करने में सफल होते हैं और हिताहित वे नालियाँ रही हैं जिन मार्गों से सतत मिथ्यात्व-अविरत, प्रमाद, कषाय ज्ञान-विज्ञान से परिचित भी ।यह निर्विवाद सत्य है कि चैतन्य शक्ति और योगिक प्रवृत्ति रूपी गंदगी का प्रवाह अर्थात-पापस्रव जीवन रूपी का सहयोग प्रतिपल प्रतिक्षण के बिना देह धारियों के द्रव्यमन और घर में एकत्रित होता रहता है। उक्त विपरीत प्रवृत्ति पर जब नियन्ता भाव मन से प्रादर्भुत अच्छे बुरे संकल्प-विकल्पों की तरंगें न साकार अंकश लगाने में सफल हो जाता है, तब सत्यं शिवं-संदरम् का प्रतीक हो पाती है और न प्रगट ही....।
संवर धर्म की फसल होने लगती है। यह साधक की सामयिक विवेकता विश्व के विराट कोषागार में प्रतिक्षण अगणित क्रियाएं संचालित पर निर्भर है। हैं। कुछ क्रियाएँ किसी न किसी साधना द्वारा संचालित हुआ करती इन्द्रिय विज्ञान के सम्बन्ध में जितना गहन गंभीर हैं। यद्यपि क्रियाओं का सम्बन्ध कर्ता के साथ जुड़ा हुआ है। फिर विश्लेषण-विवेचन जैनागम वाङ्मय में उपलब्ध होता है. उतना अन्य भी कर्ता किसी न किसी माध्यम पर आधारित रहता है । वस्तुत: साधन धर्म ग्रन्थों में नहीं मिलता है। इन्द्रिय-संस्थान, इन्द्रिय-ग्राह्यशक्ति, अगर शिथिल हो. कमजोर हो तो वह कर्ता अपनी योजना में सफल इन्द्रिय विषयक भेद-प्रभेद, इन्द्रिय अवगाहना, इन्द्रियअवगाहित नहीं हो पायेगा भले वे क्रियाएं शारीरिक, मानसिक या वाचिक हों,
आकाश प्रदेश, एवं कामी इन्द्रिय और भोगी इन्द्रिय इत्यादि मुद्दों पर इसी प्रकार घर-परिवार - गांव - नगर - देश सम्बन्धी हों या अध्यात्म
सविस्तार उल्लेख मिलता है। साधना से जुड़ी हों। सजीव इन्द्रियों के माध्यम से ही पूर्ण होती देखी
स्पर्श- इन्द्रिय जाती हैं। मैं सुन रहा हूँ। देख रहा हूँ। सँघ रहा हूँ। चख रहा हूँ और स्पर्शानुभव कर रहा हूँ। उक्त क्रियाएं इन्द्रियों के द्वारा ही पूर्ण
स्पर्शेन्द्रिय की परिव्याप्ति शरीर पर्यन्त सभी इन्द्रियों में पाई होती हैं।
जाती है। इस कारण इसका महत्व पर्याप्त माना है। कर्कश-कोमल, पांचों इन्द्रियों में स्वाभाविक भिन्न-भिन्न विशेषता वाले भिन्न-भिन्न
गुरु, लघु, शीतोष्ण और स्निग्ध-रुक्ष । सामान्य तया उक्त आठों विषयों
के ज्ञानाज्ञान की अनुभूति चैतन्य को करवाना, यह स्पर्शेन्द्रिय का अपना यंत्र नियोजित हैं। एक विलक्षण नैसर्गिक व्यवस्था का प्रावधान है।
धर्म है। इसका यही नियत कार्यक्षेत्र रहा है। स्पर्शेन्द्रिय की यह कर्णेन्द्रिय में बल प्राण रूप यंत्र हुआ है उसका काम है - श्रव्यध्वनियों
सीमित परिधि इन्हीं आठ विषयों में रही है। इसमें सूक्ष्मतम नैसर्गिक की तरंगों को अपनी ओर आकृष्ट करना, पकड़ना । नाक में भी एक ऐसे यंत्र की व्यवस्था है जो केवल गांधिक पुद्गलों के परमाणुओं
एक चुम्बकीय यंत्र लगा हुआ है। वस्तुका स्पर्श होते ही वह यंत्र को अपनी ओर खींचता रहता है। रसनेन्द्रिय में भी वह यंत्र है जो
सक्रिय बनकर अपने स्वामी (जीव) को सूचित करने में तनिक भी देर
नहीं करता है। वस्तुत: इसको योगी इन्द्रिय माना है। इसका आयाम पंचविध रसद पुद्गल परमाणुओं का ज्ञान करवाता है। स्पर्शेन्द्रिय में नियोजित यंत्र-हल्के भारी, शीत, उष्ण, रुक्ष स्निग्ध, कर्कश, कोमल
विष्कुम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) जघन्योत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग पुद्गलों की अनुभूति करवाता रहता है । चक्षु-इन्द्रिय में स्थापित यंत्र
एवं एक हजार योजनाधिक मानी है। की विलक्षणता न्यारी है । दूरस्थ किंवा समीपस्थ दृश्य-मान चीजों का
उपर्युक्त आठों विषय सचिताचित, मिश्र, शुभाशुभ और अंत में
राग-द्वेष की परिणतियों में परिणत होते हुए आगे चलकर ८६ विकारी ज्ञान कराता चला जाता है।
विकल्पों में फैल जाते हैं। स्पर्शेन्द्रिय का संस्थान (आकार) नाना प्रकार बल-प्राण बनाम यंत्र के बिगड़ने पर या उसकी पकड़ शक्ति
माना है। इसकी विषय ग्राह्य शक्ति कम से कम अंगुल के असंख्यातवें शिथिल होने पर वे प्राणी बहरे, अंधे, काने, लले, लंगड़े-मक की कोटि
भाग, उत्कृष्ट चारसौ धनुष्य से लेकर नौ योजन दूरस्थ पदार्थों को में गिने जाते हैं फिर उन्हें कृत्रिम साधनों का सहारा लेना होता है।
आकृष्ट करने की क्षमता रही हुई है । उक्त विकारी परिणतियों से आत्मा बुराई भलाई में सुकृत-विकृत में, हिंसा, अहिंसा में सत्यासत्य का हित नहीं, अहित ही हुआ है। शुभ स्पर्शों से राग की निष्पत्ति और में रागात्मक-द्वेषात्मक प्रवृत्ति में, आस्रव-संवर में उक्त पांचों इन्द्रियों अशुभ स्पर्शों से द्वेष भावों की वृद्धि होती रही है। जैसा कि आगम का सक्रिय योगदान रहा है । वस्तुत: अपेक्षा दृष्टि से ऐन्द्रिय शक्ति की में कहा है - ऊर्जा देहधारियों के लिये हानिकारक भी और लाभदायक भी रही शरीर, स्पों को ग्रहण करता है और स्पर्श, शरीर का ग्राह्य रहा
है। सुखद स्पर्श राग का और दुखद स्पर्श द्वेष का कारण है।
श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन पंथ/वाचना
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अमृत आज्ञाराधना, विराधना विष जान । जयन्तसेन सुधा ग्रहण हो सुखदा सुविहाण ॥
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