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• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - • इतिहास.
अपरिचित रहे हों या उसके रचना - कौशल का उनमें ज्ञान न रहा हो यह बात संभव नहीं लगती।
ज्ञान के इतने महत्त्वपूर्ण अंग की स्पष्ट धारणा इस देश में न रही हो यह बात किसी तरह गले के नीचे नहीं उतरती । टिलहार्ड द शार्डिन और लोएस डिकिन्सन जैसे कुछ पाश्चात्य लेखकों ने यह मत प्रचारित किया था और हीरानंद शास्त्री जैसे विद्वान ने इसका समर्थन किया कि प्राचीन भारत में स्पष्ट इतिहास- ग्रन्थ नहीं लिखे गए। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी प्रकारान्तर से यही माना है । आधुनिक इतिहासकार काल, व्यक्ति और स्थान एवं घटना को इतिहास का महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं। इसी आधार पर वे हमारे प्राचीन इतिहास ग्रन्थों-महाभारत आदि को आधुनिक अर्थ में इतिहास ग्रन्थ नहीं मानते, क्योंकि महाभारतकार ने २४ हजार श्लोकों में से किसी भी श्लोक में संभवतः उसकी रचना का समय और स्थान का विवरण नहीं दिया। लेकिन क्या काल की उपेक्षा के कारण शेष तीनों वर्णन ऐतिहासिक न होकर पौराणिक हो गए। उनका यह कथन कि आधुनिक अर्थ में इतिहास लेखन की अवधारणा पाश्चात्य जगत् में विकसित हुई सर्वथा मान्य नहीं है। भारतीय काल की सनातनता में विश्वास करते हैं न कि पुरातनता में। आधुनिक इतिहास भूत या प्राचीन काल की घटनाओं का विवरण देने को ही महत्त्वपूर्ण मानता है। हमारे देश में जड़, मृत या भूत की उपासना प्रशस्त नहीं मानी गई। मिस्र में भूत की उपासना प्रबल रूप से प्रचलित थी। इसीलिए ममी को पिरामिडों में सुरक्षित रखा गया। ईसाई और इस्लाम में मृतकों को गाढ़कर उनके ऊपर कब्र बनवाना मिस्री भूत-पूजा का ही अनुकरण है। भारतीय संस्कृति में मृतकों को अग्नि में जलाने के बाद जो शेष रहता है, उसे जल में प्रवाहित किया जाता है और शेष केवल सनातन बचता है। संभवत: इसीलिए महाभारत और पुराणों में तिथिक्रम नहीं मिलता है। प्रायः पुराणों में जो राजवंशावलियाँ है उनसे इतिहास के तिथिक्रम निर्धारण में कम ही सहायता मिलती है।
पाश्चात्य विचारकों का मत है कि सिकन्दर के आक्रमण और चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की निश्चित तिथि ई.पू. ३२५ को ही आधार मानकर पुराणों की संख्या को समय-सूचक बनाया गया है। अत: यह आधार भी दृढ़ नहीं है। सच्चिदानन्दमूर्ति, वी.वी. गोखले, के. पी. जायसवाल और विश्वंभरशरण पाठक प्रमाणपूर्वक इस मत का खण्डन करते हैं। इन विद्वानों का
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विचार है कि हमारे देश में इतिहास वैदिक काल से था, किन्तु उसका स्वरूप स्वदेशी है, न कि पाश्चात्य । इतिहास संबंधी भारतीय एवं पाश्चात्य अवधारणाओं में अंतर के कारण ही यह भ्रामक विचार फैला। यह तो ज्ञात है कि हमारे देश में अश्वमेध यज्ञ वैदिककाल से होते रहे हैं। यज्ञ की तैयारी के समय संबंधित चक्रवर्ती सम्राट् के प्रताप, शौर्य और वीरतापूर्ण कार्यों का बखान 'नाराशंसी' के रूप में छंदों में गाए जाने की प्रथा प्रचलित थी। राजाओं की ही नहीं ऋषियों की प्रशंसा के भी प्रमाण हैं । कुछ गाथाओं (दशराज्ञ) में ब्राह्मण पुरोहित वशिष्ठ की प्रशंसा की गई है जिसने सुदास को दश राजाओं पर विजय प्राप्त करने का मार्ग दिखाया। ऋग्वेद में ही इन्द्र की प्रशस्ति मिलती है । यही प्रशस्ति की परिपाटी आगे 'गाथा' और 'नाराशंसी' में मिलती है, जिसका अर्थ नर या श्रेष्ठ आदमी की प्रशंसा अर्थात् महापुरुषों की प्रशस्ति है। यह एक रचना की विधा थी। इसमें केवल यज्ञकर्त्ता राजा की ही नहीं वरन् देवों, ऋषियों और प्राचीन राजाओं की भी प्रशंसा के गीत गाए जाते थे। इस प्रकार की नाराशंसी और गाथाएँ जनमेजय-परीक्षित, मरुत्ऐक्ष्वाकु, कैव्य- पांचाल और भरत आदि प्रतापी सम्राटों के संबंध ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलती है । बाद में यह कार्य सूतों और मागधों ने सँभाल लिया। यजुर्वेद और वायुपुराण में इनका उल्लेख मिलता है। ये लोग राजाओं, राजवंशों, उनके कार्यों तथा उनकी शासन व्यवस्था का लेखाजोखा रखते थे। मागधों सूतों का मुख्य कार्य देवों, ऋषियों और महापुरुषों तथा प्रतापी राजाओं की वंशावली तैयार करना था । सूत को पौराणिक भी कहते थे। वैसे तो आगे चलकर सूतमागध शब्द भी पुराण इतिहास की तरह समानार्थी हो गए थे, पर मागध वंशावली रखते थे और सूत पुराण तैयार करते थे। पार्जिटर का कथन है कि उन्हीं सूतों ने राजवंशों की विरुदावलियाँ, प्रतापी राजाओं के शौर्यप्रताप की कहानियाँ एकत्र कीं, जो बाद में पुराणों में सम्मिलित की गईं और इतिहास का महत्त्वपूर्ण स्त्रोत बनीं'। सूत, वैशंपायन, लोमहर्षण आदि सूत ही थे। इनका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में बराबर मिलता है। भारत के प्राचीनतम राजा 'पृथु' का उल्लेख सूत्रों ने किया है। इसी पृथु के नाम पर डायोडोरस जैसे विदेशी लेखक भी करते हैं । सूत एक प्रकार 'पृथ्वी' का नामकरण हुआ। पृथु का उल्लेख मेगस्थनीज और के चारण थे जो विरुदावली गाते थे, वंशावली बखानते थे। बाद में ये शासकों की वंशावली बनाने और उसके रखरखाव के
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