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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग करना अशक्य है उसे छोड़कर शेष स्थावर जीवों के हिंसा का भी त्याग रहता है। क्योंकि मुक्ति का कारण केवल अहिंसा है । हिंसा अहिंसा का वर्णन मूलगामी है । देखिये, प्रमत्तो हिंसको हिंस्या द्रव्यभावस्वभावकाः । प्राणास्त्वव्युच्छिदा हिंसा तत्फलं पापसंचयः ॥
जो सम्पूर्ण भोगोपभोग में उपयोगी पड़नेवाले असत्य वचन का त्याग नहीं कर सकता इसलिये भोगोभोग के उपयोग में आनेवाले वचनों को छोड़कर शेष सावद्य वचनों का त्याग करता है उसे सत्याणुव्रती कहते हैं । सर्व साधारण के उपभोग में आनेवाले मिट्टी, जल आदि पदार्थों को छोड़कर अन्य सभी अदत्त पदार्थों का त्याग करता है । कोई वस्तु मार्ग आदि में पड़ी हुई मिले उसको भी अदत्त समझकर त्याग करता है । जो अपने कुटुम्बी नहीं है उनके मर जानेपर उसके धन के सम्बन्ध में राजकीय विवाद उपस्थित नहीं करता है । उसे अचौर्याणुव्रती कहते हैं । अथवा प्रमाद के वशीभूत होकर किसी की विना दिए तृण मात्र का भी ग्रहण करना वा उठाकर दूसरे को देना चोरी है ।
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अब्रह्म त्याज्य है ऐसा मानता हुवा भी जो सम्पूर्ण अब्रह्म के त्यागने में असमर्थ हैं वे स्वदार सन्तोष रूप ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करते हैं । ग्रन्थकारने स्वदार सन्तोष रूप ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण करते समय 'अन्य स्त्री प्रकटस्त्रियौ' इस पद से यह सूचित किया है कि नैष्ठिक अर्थात प्रतिमा ध श्रावक के स्वदार सन्तोष व्रत होता है और अभ्यासोन्मुख व्रती के परदार त्याग नाम का व्रत होता है । इस प्रकार जो स्वस्त्री को छोड़कर सम्पूर्ण स्त्रियों से विरक्त होता है उसे ब्रह्मचर्याणुव्रती कहते हैं । चेतन, अचेतन, और मिश्र वस्तुओं में 'यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प को भाव परिग्रह कहते हैं । भाव परिग्रह को कृश करने के लिये चेतन अचेतन तथा मिश्र परिग्रह का भी त्याग करना परिग्रह परिमाण व्रत है । परिग्रह का त्याग देश काल आत्मा आदि की अपेक्षा से विचार करके त्याग करना चाहिए । परिमित परिग्रह को भी यथा शक्ति कम करना चाहिये - क्योंकि परिग्रह अविश्वास जनक है लोभ वर्द्धक है, तथा आरंभ का उत्पादक है ।
अविश्वासतमोनक्तं लोभानलघृताहुतिः । आरम्भमकराम्भोधिरहो श्रेयः परिग्रहः ॥
पंचमोऽध्याय
इस अध्याय में तीन गुण व्रत और शिक्षा व्रत का वर्णन है । अणुव्रतों के उपकार करनेवाले व्रतों को गुणत कहते हैं । जिस प्रकार खेत की रक्षा वाड से होती है उसी प्रकार अणुव्रतों की रक्षा गुणवत और शिक्षा व्रतों से होती है । इन सात शीलों से आत्मा में चारित्र गुण का विशेष विकास होता है । दिग्विरति के पालन करने से क्षेत्र विशेष की अपेक्षा सर्व पापों का त्याग होता है । अनर्थदंड त्यागत्रत के पालने से निरर्थ पापों के त्याग का लाभ होता है । भोगोपभोग की मर्यादा करने से योग्य भोगोपभोग के अतिरिक्त सर्व पापों का त्याग होता है ।
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