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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन
मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय', एम. ए. साहित्य रत्न
प्रभु महावीर और उत्तराध्ययन सूत्र
इष्ट नहीं है ।
क्योंकि अन्य
चार मूल सूत्रों में 'उत्तराध्ययनसूत्र' का नाम आता है । इसको जैन परम्परा में प्रभु महावीर की अन्तिम देशना के रूप में स्वीकार किया गया है। फिर भी इस सूत्र के कुछ अध्ययनों को लेकर हल्का-सा मत-भेद उत्पन्न हुआ है कि वे अध्ययन प्रभु महावीर के निर्वाण के बाद प्रक्षिप्त किये गये हैं । जो भी हो हमें यहाँ इस बात की चर्चा लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य है कि इस सूत्र का स्थान बड़ा ही गौरवपूर्ण है । आगम सूत्रों की अपेक्षा इस सूत्र पर नियुक्ति, चूर्णि, टीका, उपटीका, भाष्य एवं अनेक अनुवाद लिखे गये हैं विद्वदाचार्यों द्वारा ! भद्रबाहु स्वामी द्वारा इस पर नियुक्ति की रचना की गयी है। साथ ही इस सूत्र में चारों ही अनुयोगों - चरणकरणानुयोग, धर्मानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग का वर्णन उपलब्ध होता है । इस दृष्टि से इस सूत्र का महत्त्व स्वयमेव प्रभासित है । यह सूत्र जीवन-दर्शन, अध्यात्म, धर्म, दर्शन; इतिहास, कथा आदि विविध विषयों का एक तरह से कोष है । यह सूत्र ऐसा एक सागर है जिसके भीतर अनमोल रत्न उपलब्ध हैं । चाहिये ऐसा बुद्धि का तिरैया, जो भीतर गहरा उतरे और रत्न ढूंढ लाये !
प्रस्तुत निबंध की भावभूमि
यह सर्वमान्य बात है कि वीतराग- वाणी - श्रार्षवाणी प्राध्यात्मिक भावों को ही स्पष्ट करने वाली है । श्राषं वाणी अपनी तेजस्वी ज्ञानधारा के साथ भव्यजीवों के हृदय को स्पर्श कर मिथ्यात्व की चट्टान को भेदने वाली है । अतः जो सीधे हृदय में उतरने वाली बात है उसका अपना विशिष्ट ही महत्त्व है ।
आर्षवाणी प्राध्यात्म-वैभव से परिपूर्ण होती है । उसका एक-एक शब्द रूपी मोती बहुमूल्य तो क्या अनमोल होता है। क्योंकि उसकी कीमत आंकना ही मुश्किल है । तब उसकी महिमा गरिमा एवं भावना की बात ही क्या है ?
आत्म-वैभव से परिपूर्णता के कारण इस सूत्र पर काफी लिखा गया है निबंधात्मक या शोध रूप से, जिन्होंने भी लिखा उन सभी ने प्रायः इसके प्रात्म-वैभव को लेकर ही लिखा है । जहाँ तक मेरे ध्यान में है, बात यह है कि इसके बाह्य कला वैभव पर बहुत कम लिखा गया है या नहीं ही लिखा गया है । यदि लिखा भी गया है तो मेरे ध्यान में नहीं है । साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मेरा ध्यान इसके कला-वैभव की ओर गया। तब मुझे ऐसा लगा कि इसके कला वैभव को स्पष्ट करना चाहिए। क्योंकि प्राय: जैन सूत्रों और ग्रन्थों को यह कह कर साहित्यिक
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