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જ્ઞાનાંજલિ इसमें लिखा है कि ' जीर्ण खंडित .... और मलिन वस्त्रों के धारण करने पर भी साधुलोक अचेलक (नग्न) कहलाते हैं ।
प्रस्तुत 'आराधनापताका 'में ' भक्तपरिज्ञा' ग्रन्थकी १७० गाथाओंमेंसे ११४ गाथाएँ ज्यों की त्यों उठाकर रक्खी गई हैं। अनेक गाथायें पिंडनियुक्तिकी, अनेक आवश्यक नियुक्तिकी, कितनी ही आवश्यक की हरिभद्रीय टीकामें प्रमाण रूपसे दो हुई और कितनी ही आवश्यकान्तर्गत परिष्ठापनिका नियुक्तिकी, इस प्रकार बहुत-सी गाथाएँ इसमें दूसरे ग्रन्थोंसे संग्रह की गई हैं। अतः इस ग्रन्थको ‘संग्रहग्रन्थ ' कहना कुछ भी अनुचित न होगा ।
८९४ नम्बरकी गाथामें लिखा है कि-
" एयं पच्चक्खार्ण सवियारं वणियं सवित्थारं ।
इत्तो भत्तपरिणं लेसेण भणामि अवियारं ॥" अर्थात् -यह सविचारप्रत्याख्यान (परिज्ञा) विस्तारपूर्वक कथन किया गया, अब अविचारपरिज्ञाका संक्षेपसे ( 'भक्तपरिज्ञा' ग्रन्थमें विस्तारसे वर्णन होनेके कारण) करता हूँ। इसके बाद दश गाथाओंमें उसका वर्णन दिया गया है । अंतमें इंगिणी-मरण और पादोपगमनका भी वर्णन संक्षेपसे किया है।
__मैं समझता हूँ, इस सम्पूर्ण कथनसे पाठकों को इस बातका जरूर निश्चय हो गया होगा कि यह 'आराधनापताका' ग्रन्थ श्वेताम्बराचार्यनिर्मित है, दिगम्बराचार्यकृत नहीं ।
। उक्त लेखमें आगे चलकर, लेखक महाशयने यह भी प्रकट किया है कि-" इसके सिवाय जैनग्रन्थावलीमें 'वीरभद्र' नामके दो आचार्योका और भी उल्लेख किया गया है। एक 'चतुःशरण' नामके श्वेताम्बर ग्रन्थके कर्ता वीरभद्रगणि', जिनके विषयमें उक्त ग्रन्थके टीकाकारने लिखा है कि वे महावीर भगवान्के शिष्य थे...."
यद्यपि 'जैन ग्रन्थावली' में 'चतुःशरण' के कर्ता वीरभद्रगणि' को टीकाकारके कथनानुसार महावीर परमात्माका शिष्य लिखा है परन्तु 'चतुःशरण', 'भक्तपरिज्ञा' और 'आराधनापताका' के कर्तृनाम-गर्भपयोंके निरीक्षणसे तीनों ही ग्रन्थोंके कर्ता प्रायः एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं ।
यथा:" इय जीवपमाय महारिवीर महंत मेय मञ्झयणं ।”
--चतुःशरण। " इय जोईसरजिणवीरमणियाणुसारिणी मिणमा ।" -भक्तपरिज्ञा ।
" इय विसयवइ रिजिणवीर महमाराहणं पसाहेसु ।" ." इय सुन्दराई जिणवीस्मद्दमणियाई पवयणाहिंतो ।” -आरातनापताका।
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