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आयुर्वेद को जैन संतों की देन
जैन संतों ने प्रायः सभी विषयों पर अपनी कलम चलाई है । जहाँ तक आयुर्वेद का प्रश्न है, इस विषय पर भी जैन संतों द्वारा रचित साहित्य विपुल मात्रा में मिलता है किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम कौन से आयुर्वेद ग्रंथ की रचना हुई और उसका रचनाकार कौन था ? यदि आगम ग्रंथ का अध्ययन किया जाये तो भी आयुर्वेद सम्बन्धी सामग्री पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाती है । प्रस्तुत निबंध में केवल उन्हीं संतों का संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया जायेगा जिन्होंने आयुर्वेद के स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की है।
डॉ० तेज सिंह गौड़
उग्रादित्याचार्य कृत 'कल्याणकारक' में कुछ पूर्ववर्ती आयुर्वेदाचार्यों का विवरण मिलता है जिसके अनुसार सर्वप्रथम समन्तभद्र का नाम आता है जो पूज्यपाद के भी पूर्व हुए बताये जाते हैं । इन्होंने 'सिद्धान्त रसायन कल्प' नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना की जो अठारह हजार श्लोकों में समाप्त हुआ था । सम्पूर्ण ग्रंथ तो उपलब्ध नहीं है किन्तु इसके दो-तीन हजार श्लोक ही उपलब्ध हैं । इस ग्रंथ में पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग तथा उनके संकेत भी दिये गये हैं । इसलिये अर्थ करते समय जैनमत की प्रक्रियाओंपरम्पराओं को ध्यान में रखकर अर्थ करना पड़ता है । समन्तभद्र द्वारा रचित दूसरा ग्रंथ 'पुष्पायुर्वेद' बताया गया है । गर्व के साथ यह कहा जा सकता है कि अभी तक पुष्पायुर्वेद का निर्माण जैनाचार्यों के अतिरिक्त और किसी ने भी नहीं किया है । आयुर्वेद संसार में यह एक अदभुत वस्तु है । इस ग्रंथ में अठारह हजार जाति के कुसुम (पराग रहित ) पुष्पों से ही रसायनौषधियों के प्रयोगों को लिखा है ।
दूसरे क्रम पर पूज्यपाद देवनंदी का विवरण है। ये अनेक रसायन, योगशास्त्र और चिकित्सा की विधियों के ज्ञाता थे । साथ ही शल्य एवं शालाक्य विषय के भी विद्वान आचार्य थे । पूज्यपाद द्वारा 'वैद्यसार' ग्रंथ की रचना की गई, ऐसी जानकारी मिलती है। आपके जीवन की विशिष्ट घटनाओं को देखने से भी आपके आयुर्वेद ज्ञान को जानकारी मिलती है। कुछ अन्य ग्रंथ भी आपके द्वारा रचे गये मिलते हैं जिन पर अध्ययन अन्वेषण अपेक्षित है।
पूज्यपाद के बाद श्री गुम्मट देवमुनि हुए हैं जिन्होंने मेरुतंत्र नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना की है। इन्होंने प्रत्येक परिच्छेद के अंत में पूज्यपाद स्वामी का बहुत ही आदरपूर्वक स्मरण किया है ।
पूज्यपाद के भानजे सिद्धनागार्जुन ने नागार्जुन कल्प, नागार्जुन का पुट आदि पंथों का निर्माण किया। इन्होंने बसेर गुटिका' नामक स्वर्ण बनाने का रत्नगुटिका भी तैयार की थी ।
ये कुछ आयुर्वेदाय हैं जिनका विवरण उग्रादित्याचार्य ने अपने कल्याणकारक में दिया है। इनका यह ग्रंथ वि० सं० २७१ अर्थात् ई० सन् ८१५ का लिखा हुआ है । इनके गुरु का नाम श्रीनंदि था और इनका अधिकांश समय एक चिकित्सक के रूप में व्यतीत हुआ ।
इनका कल्याणकारक नामक ग्रंथ पच्चीस परिच्छेदों के अतिरिक्त अंत में परिशिष्ट रूप में अरिष्टाध्याय और हिताध्याय से परिपूर्ण है। आयुर्वेद का दृष्टि से यह ग्रंथ अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथ में औषध में माँस की निरुपयोगिता को सिद्ध किया है और आचार्य ने स्वयं नृपतुंग वल्लभेन्द्र की सभा में इस प्रकरण का प्रतिपादन किया है। कल्याणकारक एक उपयोगी और १. समाधितंत्र और इष्टोपदेश, प्रस्तावना, पृष्ठ ५ से ८ एवं १३, १४ देखें ।
जैन प्राच्य विद्याएं
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