________________ 66 पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड के मन में समी धर्मों के प्रति आदर का भाव था। इसीलिए उन्होंने कहा है-"मैं वेदों के एकमात्र ईश्वर में विश्वास नहीं करता / मेरा विश्वास है कि बाइबिल, कुरान और जेन्द-अवस्ता में उतनी ही ईश्वरीय प्रेरणा है जितनी कि वेदों में पायी जाती है।"८ उनकी प्रार्थनासभा में प्रायः सभी धर्मों की प्रार्थनाएं होती थी। धर्म के सम्बन्ध में उनका यह विश्वास था कि यदि कोई व्यक्ति किसी एक धर्म को अच्छी तरह से समझकर उसका अनुगमन करता है तो उसे उसके मन में अन्य धर्मों के प्रति किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं उत्पन्न हो सकता है। इसलिए उन्होंने कहा है कि यदि हिन्दू को अपने धर्म से असन्तोष है, तो वह उसका अध्ययन करके एक अच्छा हिन्दू बने। वे अपने विषय में कहा करते थे कि मैं एक कट्टर हिन्दू हूँ, इसीलिए एक ईसाई भी हूँ, एक मुसलमान भी हूँ, एक जैन और बौद्ध भी हूँ। ____ गांधीजी की धर्मनिरपेक्षता का कुछ नासमझ लोगों ने यह मा अर्थ लगाया है-धर्म की अपेक्षा नहीं या धर्म की कोई आवश्यकता नहीं। भला, सत्य और अहिंसा का अनुयायी धर्म से अपने को विमुख रखेगा ? पर कुछ लोग अपनी भूल को छुपाने के लिए गाँधीजी के कथनों के अर्थ न प्रस्तुत करके अनर्थ ही प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में, गांधीजी एक धार्मिक व्यक्ति थे और धर्म को अपने विचारों में उन्होंने सच्चा और सार्थक रूप दिया है। स तरह हम देखते हैं कि आधुनिक युग धर्म से अपने को अलग करके अपना कल्याण नहीं कर सकता। यह युग चाहे विज्ञान को अपनाये अथवा समाजवाद को या गाँधीवाद को या अन्य किसी वाद को, परन्तु धर्म तो इसके साथ , रहेगा। क्योंकि धर्म एक आस्था है, एक व्यवस्था है, जीवन का आधार है / जो भी हमारे जीवन की व्यवस्था करता है, जिसपर हमारा जीवन आधारित है, वही हमारा धर्म है। जीवन की व्यवस्था यदि गांधीवाद से होती है तो गाँधीवाद धर्म है, यदि जीवन की व्यवस्था समाजवाद या साम्यवाद से होती है, बही धर्म है। हाँ, इतनी बात जरूर है कि धर्म को काल के अनुसार अपने में परिवर्तन लाना होगा। प्राचीनकाल में प्रतिपादित धर्म को हम यदि आधुनिक युग में बिना किसी परिवर्तन के लाना चाहेंगे तो, धर्मानुगमन असम्भव नहीं तो मुश्किल अवश्य होगा। जैनों का अनेकांतवाद इस दिशा में हमारा परम मार्ग-दर्शक होगा। वर्तमान जीवन के लिये, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिये, जन्म, मरण और मोचन के लिये, दुःख प्रतिकार के लिये, कोई साधक विविध काय के जोवों की हिंसा करता है, करवाता है या अनुमोदन करता है, वह उसके लिये अहित और अबोधि के लिये होती है। -आचारांग, शास्त्र परिज्ञा 8. वहीं पृ० 368 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org