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डॉ. वसुमति डागा रीडर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष बंगवासी कॉलेज, कोलकाता
आधुनिक जीवन में साधना की अनिवार्यता
साधना वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति किसी विशेष लक्ष्य या उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक विशेष साधन, पद्धति, पंथ, माध्यम, उपाय आदि के द्वारा स्वयं को परिचालित करते हुये लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है । साधना शब्द की व्युत्पत्ति सिध् धातु से हुई है (सिध् + णिच् + युच् + टाप = साधना) जिसका अर्थ है निष्पन्नता, किसी कार्य की पूर्ति, पूजा-अर्चा तथा संराधन या प्रसाधन। मनुष्य चिन्तनशील प्राणी है उसका चिन्तन ही उसकी जीवन-यात्रा की दिशा को निर्धारित करता है। यह चिन्तन लौकिक अभ्युदय या पारलौकिक कल्याण का हो सकता है। इसे ही हमारे आचार्यों ने प्रेय और श्रेय की संज्ञा दी है। जीवन में चाहे प्रेय प्राप्ति की अभिलाषा हो या श्रेय प्राप्ति की, साधना की अनिवार्यता दोनों में ही है। यदि कोई व्यक्ति साधनारहित जीवन जीता है तो यह दयनीय स्थिति का ही सूचक है। ऐसे व्यक्ति की तुलना पशु से की जाती है। पशु और मनुष्य की कुछ सहजात वृत्तियां हैं, यथा आहार, निद्रा, भय, मैथुन जैसे-जैसे वह इन वृत्तियों से परे होता है वैसे-वैसे उसकी चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है और मनुष्यता का विकास होता है मनुष्य अन्य प्राणियों से इसीलिए श्रेष्ठ है कि उसके पास बुद्धि के साथ-साथ विवेक भी है। उसके लिये यह मनुष्य शरीर भोग का साधन भी हो सकता है और मोक्ष का साधन भी यह उसकी अपनी विवेक शक्ति पर निर्भर करता है कि उसके जीवन की दिशा अभ्युदय की हो या निःश्रेयस की कवि ने कहा है
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उच्च उड़ान नहीं भर सकते तुच्छ बाहरी चमकीले पर । महत् कर्म के लिये चाहिये महत् प्रेरणा बल भी भीतर ।।
वास्तविकता यही है कि उदात्तोन्मुखी यात्रा के लिये लक्ष्य भी उदात्त होना चाहिये । यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में भौतिक सुखों के अभाव से व्यथित है तो यह स्थिति उसके लिये दुःखपूर्ण है और यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में सत्य के अभाव से व्यथित है तो यह स्थिति उसके लिये दुःखपूर्ण है परन्तु उक्त दोनों प्रकार के दुखों में गुणगत अन्तर है। प्रथम दुःख द्रव्य, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि के अभाव के कारण होने से जीवन यात्रा को अपकर्ष की ओर ले जाने वाला है। द्वितीय दुःख सत्य के अभाव में होने के कारण जीवन यात्रा को उत्कर्ष की ओर ले जानेवाला है यही वह बिन्दु है जहाँ से वास्तविक साधना का आरम्भ होता है।
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जहाँ तक जीवन में प्रेय प्राप्ति का उद्देश्य है तो यह सम्भव है कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ (साधना) से भौतिक सुखों को उपलब्ध कर सकता है, परन्तु ऐसा व्यक्ति एकांगी दृष्टि के कारण अथवा सम्यक दृष्टि के अभाव के कारण दुख रहित अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता । भौतिक सुखों का ऋणात्मक पक्ष किसी भी क्षण उसे कुण्ठा, संत्रास और
विषाद से मेर सकता है। यह स्वाभाविक है कि राग-द्वेष, हर्ष-विषाद,
सुख-दुःख, सफलता-असफलता की अनुभूतियाँ उसकी जीवन-रेखा को आड़ा-तिरछा, ऊँचा-नीचा करती ही रहेंगी। जीवन के इसी परिदृश्य को देखकर भर्तृहरि ने कहा था
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता स्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा ।
अर्थात हम सांसारिक भोगों का उपभोग नहीं कर पाये अपितु उनको प्राप्त करने की दुश्चिन्ता से हम ही ग्रसे गये। हमने तप नहीं किया प्रत्युत् आध्यात्मिक आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध ताप हमें ही सन्तप्त करते रहे। नाना, प्रकार के भोगों को भोगते हुए हम काल को नहीं काट पाये, हाँ, स्वयं ही काल कवलित हो गये। इस प्रकार तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई बल्कि हम वृद्ध हो गये।
० अष्टदशी / 2410
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कारण है कि धन और वैभव के अंबार के बीच भी मनुष्य भय, चिन्ता और असंतोष का जीवन जी रहा है, भौतिक विकास की ऊँचाइयों को उपलब्ध करते हुये भी परिवेश में हिंसा, द्वेष और अराजकता की वृद्धि हो रही है। हर तीसरे व्यक्ति को अपने मन के इलाज के लिए मनोचिकित्सक की शरण लेनी पड़ रही है, वैश्वीकरण के बावजूद व्यक्ति व्यक्ति के बीच की दूरियाँ बढ़ी हैं। वृद्ध माता-पिता को अपने जीवन निर्वाह के लिए कानून का दरवाजा खटखटाना पड़
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