________________
પૂજ્ય ગુરૂદેવ વિવ` પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ
होता है जो मोह के संस्कारों को क्रमशः जड़मूल से उखाड़ता हुआ आगे बढ़ता है और अन्त में उसे सर्वथा निर्मूल कर देता है । प्रथम श्रेणी को 'उपशम श्रेणी' और द्वितीय को क्षपक श्रेणी कहते हैं ।
९ अनिवृत्ति बादर गुणस्थान :
आठवें गुणस्थान में अपूर्व - अपूर्व विशुद्धि प्राप्त करके विशिष्ट आत्मशक्ति का संचय करके यह आत्मा नौवें गुणस्थान में प्रवेश करता है। इस भूमिका में प्रत्येक समयवर्ती जीवों के परिणाम यद्यपि उत्तरोतर अपूर्व और अनन्तगुणी विशुद्धि वाले होते हैं किन्तु एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश ही होते हैं । इस गुणस्थान में होने वाले परिणामों को विशुद्धि के कारण आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों को स्थितिवात, रसवात, गुणसंक्रमण, गुणश्रेणी और असंख्यगुण निर्जरा होती है । अभी तक जो करोडों सागरोपम की स्थिति वाले कर्म बंधते चले आ रहे थे उनका स्थितिबन्ध उत्तरोतर कम होता जाता हैं I यहाँ तक कि इसके अन्तिम समय में कर्मों को जो जवम्यस्थिति बतलाई है तत्प्रमाण स्थिति के कर्मों का बंध होने लगता है । उपशम श्रेणी वाला जीव इस गुणस्थान में मोहकर्म की एक सूक्ष्म लोभ प्रकृति को छोड़कर शेष सत्रे प्रकृतियों का उपशम कर देता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव उन्हीं का क्षय करके दश गुणस्थान में प्रवेश करता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि क्षपकश्रेणी वाला मोहकर्म की प्रकृतियों के साथ अन्य कर्मों की अनेक प्रकृतियों का क्षय करता है ।
१० सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान
इस गुणस्थान में परिणामों की प्रकृष्ट विशुद्धि के कारण मोहकर्म की शेष रही हुई सूक्ष्म लोभ प्रकृति की भी समय क्षीण शक्ति होती जाती है । उपशम श्रेणी वाला जीव तो इसके अन्तिम समय में इसका उपशमन करके ग्यारहवें गुणस्थान में चला जाता है । क्षपक श्रेणी वाला जीव इस प्रकृति का क्षय करके वारहवें गुणस्थान में पहुंचता है। जिस प्रकार धुले हुए सुंबी रंग के वस्त्र में लालिमा की सूक्ष्म लोभ नामक प्रकृति अत्यन्त सूक्ष्म रूप में रह जाती है अतएव इस गुणस्थान को सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान कहते हैं ।
११ उपशान्त मोह वीतराग छदमस्थ गुणस्थान
दशवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सूक्ष्मलोभ का उपशम होते ही समस्त कषायों का उपशमन हो जाता है और जीव उपशान्त कषायी होकर ग्यारहवें गुणस्थान में आता है। जिस प्रकार गन्दे जल में फिटकरी आदि डालने से उसका बैल बीचे बैठ जाता है और निर्मल जल ऊपर रह जाता है । इसी प्रकार उपशम श्रेणी में मोहनीय कर्म एक अन्तर्मुहुर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है जिसके कारण जोवन के परिणामों में एकदम वीतरागता, निर्मलता आ जाती है अतएव उसे उपशान्त मोह या वीतराग संज्ञा प्राप्त हो जाती है । किन्तु ज्ञानावरणीय कर्म के विद्यमान होने से वह छद्मस्थ ही कहलाता है ।
मोहकर्म का उपशम अंतर्मुहूर्त के लिए ही होता है अतएव इस काल की समाप्ति पर इस आत्मा का पतन होता हैं और वह नीचे के गुणस्थानों में चला जाता है। जिस प्रकार जल के तल में रहा हुआ मैल क्षोभ पाते ही ऊपर उठ कर जल को मलिन कर देता है उसी प्रकार पहले दबाया हुआ मोह पुनः सक्रिय होकर आत्मा को नीचे पटक देता हैं । ग्यारहवें गुणस्थान में जाने बाला आत्मा एक बार अवश्य गिरता है। गिरता हुआ वह प्रथम गुणस्थान तक भी आ सकता है परन्तु उसको यह अधःपतन की स्थिति कायम नहीं रहती। बह कभी न कभी दूनी शक्ति जुटा कर मोह का सामना करता है और क्षपक श्रेणी करके मोह का क्षय कर डालता है |
१२ क्षीण मोह वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान
क्षपक श्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का क्षय करके एकदम बारहवें गुणस्थान में पहुंचता है । इसके अन्तिम समय में शुक्ल ध्यान का दूसरा भेद प्रकट होता है। इसके द्वारा आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिकर्मों का क्षय कर डालता है । मोह का क्षय तो पहले ही हो चुका होता है। इस प्रकार चारों घातिकर्मो का क्षय होते ही आत्मा कैवल्यदशा को प्राप्त करके तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है ।
३६०
Jain Education International
For Private Personal Use Only
तत्त्वदर्शन
www.jainelibrary.org