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પૂજ્ય ગુરુદેવ કવિ પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ
सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। किन्तु इसका काल अन्तर्मुहूर्त ही है । अतः यह काल पूर्ण होते ही आत्मा पुनः सम्यक्त्व से गिर जाता है किन्तु पुनः अपने पुरुषार्थ द्वारा उक्त सातों प्रकृतियों का क्षयोपशम करके क्षयोपशमिक सम्यग्दृष्टि बनता । जो आत्मा इन सात प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि बनता है वह अधिक से अधिक तीन भव तक संसार में रहता है। चौथे भव में वह नियमतः मुक्ति प्राप्त कर लेता है ।
चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव की बाहरी क्रियाओं में और मिथ्यात्वकी बाहरी क्रियाओं में कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता परन्तु अन्तरंग की परिणति में आकाश-पाताल जितना अन्तर हो जाता है । मिथ्यादृष्टि की परिणति सदा मलिन और आर्तरौद्रध्यान प्रचुर होती है जब कि सम्यग्दृष्टि की परिणति शुद्ध, प्रशस्त और धर्मध्यानमय जाती है । यद्यपि चारित्रमोह के तीव्र उदय से चौथे गुणस्थान वाला जीव - व्रत - शील-संयम अंगीकार नहीं कर सकता है तथापि विषय - सेवन के प्रति उसकी आसक्ति एकदम घट जाती है । वह अनासक्तभाव में - निर्लिप्त होकर संसारव्यवहार चलाता है ।
५. देशविति गुणस्थान
चौथे गुणस्थान में दर्शनमोह की शक्ति को शिथिल करके स्वरूप दर्शन कर लेने के पश्चात् आत्मा चारित्रमोह को शिथिल करने का प्रयास करता है । इस प्रयत्न में वह आंशिक विरति अंगीकार करता हैं। व्रत-शील-संयम, त्याग-प्रत्याख्यान आदि को अंश रूप में अपनाता है । अंशत: स्वरूप स्थिरता या परपरणति -त्याग होने से चतुर्थ भूमिका की अपेक्षा इसमें अधिक शान्ति लाभ होता है । यह देशविरति नामक पंचम गुणस्थान है ।
६ सर्व विरति गुणस्थान
पंचम गुणस्थान में अपनाये गये आंशिक व्रत - प्रत्याख्यानों से होने वाली शान्ति का अनुभव करता हुआ आत्मा सोचता है कि जब आंशिक विरति से ऐसी शान्ति मिलती है तो सर्व विरति से कितनी अधिक शान्ति मिल सकेगी ? यह विचार उसे सर्व-विरति की प्रेरणा देता है और आत्मा सब प्रकार के आरंभ समारंभ को त्याग कर कुटुम्ब परिवार की ममता को छोड़कर सर्व विरति संयम को अंगीकार करता है । इस अवस्था में पौद्गलिक भावों पर मूर्छा नहीं रहती और स्वरूप की अभिव्यक्ति करने में ही आत्मा की सारी शक्ति लग जाती है । यद्यपि आत्मा संयम की साधना में संलग्न हो जाता है तदपि प्रमाद का सद्भाव इसमें बना रहता है । अतएव इस गुणस्थान को प्रमत्त संयंत गुणस्थान भी कहते हैं ।
-७ अप्रमत्त संयत गुणस्थान
सर्वविरतिजनित शान्ति के साथ अप्रमादजनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की इच्छा से विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करता है और अप्रमत्त भाव से स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल मनन- चिन्तन के सिवाय अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देता है, यह 'अप्रमत्त संयत' नामक सातवाँ गुणस्थान है ।
1. इस भूमिका पर प्रमाद और अप्रमाद के बीच खींचातानी चला करती है। कभी आत्मा प्रमाद पर हावी होकर अप्रमत्तभाव में रमण करने लगता है और कभी प्रमाद हावी होकर आत्मा को तन्द्रा में डाल देता है । अतः कभी प्रमाद की तन्द्रामय और कभी अप्रमाद की जागृति की स्थिति बनती है । छट्ठे और सातवें गुणस्थान के बीच आत्मा बार बार आता जाता रहता है ।
८ अपूर्वकरण गुणस्थान
अप्रमत्त आत्मा शेष रहे हुए मोह को नष्ट करने के लिये विशेष प्रयास करता है । मोह के साथ युद्ध करने के लिए आत्मा यहां विशेष रूप से तैयार होता है । तब उसके परिणाम प्रत्येक क्षण में अपूर्व • अपूर्व ही होते हैं । प्रत्येक समय में उसके परिणामों की विशुद्धि अनन्त गुनी होती जाती है । ऐसे विशुद्ध परिणाम उसे पूर्व में नहीं प्राप्त हुए थे अत: उन्हें अपूर्व कहते हैं । इस गुणस्थान का कार्य मोहकर्म के उपशम या क्षपण की भूमिका तैयार करना है ।
इस गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले आत्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं। को क्रमश: दबाता हुआ आगे बढ़ता है और अन्त में उसे सर्वथा उपशान्त कर देता है
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आत्मिक उत्क्रान्ति के सोपान
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कोई विकासगामी तो मोह के संस्कारों
विशिष्ट शुद्धि वाला कोई आत्मा ऐसा
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