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- डा० हुकुमचन्द संगवे
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हमारी समस्त तत्त्वविद्या का विकास एवं विस्तार आत्मा को केन्द्र मानकर ही हुआ है। आत्मवादी एवं अनात्मवादी दोनों ही दर्शनों में प्रात्मा के विषय में गहरी विचारणा हुई है। प्रस्तुत में विद्वान लेखक ने आत्मतत्त्व पर विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से एक पर्यवेक्षण किया है। --------------------------------o-o-S
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आत्मतत्त्व : एक विवेचन
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आत्मतत्त्व की धारणा
भारतीय चिन्तकों ने विश्व के समस्त पदार्थों को चेतन और अचेतन दो रूपों में विभाजित किया है। चेतन में ज्ञान, दर्शन, सुख, स्मृति, वीर्य आदि गुण पाये जाते हैं और अचेतन में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, गुण आदि । वैदिक काल में भी आत्मा अर्थात् चेतन तत्त्व की जानने की जिज्ञासा हुई थी-'यह मैं कौन हूँ? मुझे इसका पता नहीं चलता' ।' अचेतन तत्त्व के सम्बन्ध में भी जिज्ञासा थी-'विश्व का वह मूल तत्त्व सत् है या असत् ? उस तत्त्व को इन्हीं नाम से कहने को वे तैयार नहीं हैं। इसके अनन्तर ब्राह्मणकाल की अपेक्षा उपनिषद्काल में आत्मा के स्वरूप पर महत्त्वपूर्ण विचार हुआ। जैन वाङमय में आत्मचर्चा की प्रमुखता आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत की। इस दार्शनिक तत्त्व पर विचार किया जाय तो वैदिक युग में आत्मा के स्वरूप का उतना अधिक चिन्तन नहीं हुआ, जितना बाद में हुआ। भारतीय दर्शन में पराविद्या, ब्रह्मविद्या, आत्मविद्या, मोक्षविद्या इस प्रकार के विद्याओं के विवेचन प्रसंग में आत्मविद्या का स्थान है।
आत्मा संसार के समस्त पदार्थों से नित्य और विलक्षण है। आत्मा का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को स्वत: अपने में होता है। उपनिषदों में वर्णित आत्मा का स्वरूप जैन दार्शनिक स्वीकार करते हैं परन्तु सुख-दुःख की अवस्था को उपनिषद् में मिथ्या कहा गया है जबकि जैन दर्शन में सुख-दुःखादि कर्मसंयोग से आत्मा के आनन्द गुण को विकृत रूप में अनुभव किये जाने की मान्यता है। उपनिषद् में जहाँ आत्मा को ब्रह्मांश स्वीकार किया है वहाँ जैन दर्शन में आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व माना है। "चेतन आत्मा न तो उत्पन्न होता है, न मरता है, न यह किसी का कार्य है और न स्वतः ही अभाव रूप में से भावरूप में आया है, वह जन्म-मरण रहित नित्य, शाश्वत, पुरातन है । शरीर नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होता । आत्मा में कर्तृत्व-भोक्तृत्व शक्ति है। वह अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अरस, नित्य, गंधरहित है, जो अनादि, अनन्त, महत्तत्त्व से परे और ध्रव है, उस आत्म तत्त्व को प्राप्त कर मनुष्य मृत्यु के मुख से छुटकारा प्राप्त करता है।" उपनिषद के इस विचार से आचार्य कुन्दकुन्द सहमत हैं। आत्मा का अस्तित्व
भारतीय दर्शन का विकास और विस्तार आत्मतत्त्व को केन्द्र मानकर ही हुआ । अनात्मवादी तथा आत्मवादी दर्शन में भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है, भले ही उनमें स्वरूप-भिन्नता हो ।
१ ऋग्वेद : १४१६४१३७ । २ वही : १०।१२६ । ३ पंचाध्यायी : २।३५ 'यथा अनादि स जीवात्मा।' ४ कठोपनिषद : १।२।१८; १।३।१५ ।
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