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परिशीलन के गूढ़तम रहस्य को अनुभव करना स्वाध्याय
है।
ध्यान क्यों करें ?
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा 'मन वायु की गति के समान चंचल है, उसे बाँधना, उसे वश में करना बड़ा कठिन है ।'
उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर ने कहा “मन दुष्ट घोड़े के समान है, उसे साधना कठिन है । " जितनी भी धर्म की साधनाएँ हैं, वे मन के द्वारा होती हैं । आज हमारी भाव सामायिक लुप्त हो गई है । हमारा भाव प्रतिक्रमण / कायोत्सर्ग की साधना नहीं रही । आज आम शिकायत यह है कि सामायिक में मन नहीं लगता । माला में मन नहीं लगता । धर्म-क्रियाओं में मन नहीं लगता । मन हमेशा बिखरा-बिखरा रहता है। दुकान में हैं तो आधा मन घर में रहता है, टी.वी. देख रहे हैं तो आधा मन दूसरे कामों में लगा रहता है। बच्चे पढ़ रहे हैं तो उनका आधा मन खेल में लगा रहता है। जो भी कार्य हम कर रहे हैं, उसे एकाग्रतापूर्वक कैसे करें ? जीवन के हर क्षण में समता, शांति, सुख, चैन से कैसे रहें....? इसके लिए है - ध्यान ।
हमारी भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनियों ने वर्षों तक साधना करके मन को साधा। हिन्दू संन्यासी, बौद्ध भिक्षु, जैन साधु, भगवान् महावीर या गौतम बुद्ध, सभी ने ध्यान के माध्यम से अपने मन को साधा ।
धम्मो मंगल मुक्कट्ठे अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो । । ( दशवैकालिक सूत्र )
धर्म मंगल है, उत्कृष्ट है। कौन-सा धर्म ? अहिंसा - अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति प्रेम-मैत्री, संयम यानी मन एवं इंद्रियों को साधना । तप से तात्पर्य है अंतर तप .... यही
आत्मसाक्षात्कार की कला - ध्यान
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जैन संस्कृति का आलोक
तप ध्यान है । ऐसे धर्म का जो पालन करता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं ।
अतः धार्मिक, सामाजिक एवं दैनिक जीवन के हर कार्य में ध्यान आवश्यक I
ध्यान कैसे करे ?
केवल आँखें बंद करने ही ध्यान नहीं होता । यह तो प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया में जब आप पक जाते हैं, तो आप २४ घण्टे समाधि अवस्था में, ध्यान अवस्था में रह सकते हैं।
जैसे प्रारंभ में कार चलाना सीखनेवाले को बहुत ध्यान रखना पड़ता है, ब्रेक्स कहाँ है ? गाड़ी को कैसे चलाना है? परंतु जब वह उस काम में निपुण हो जाता है, तब उसके लिए गाड़ी चलाना सहज हो जाता है।
इसी प्रकार प्रारंभ में आपको मौन रखते हुए, एक स्थान पर स्थिर बैठकर, आहार की शुद्धि करते हुए ध्यान करवाना पड़ता है। लेकिन वास्तव में ध्यान तो सहज होता है, कराना नहीं पड़ता है । हमारी आत्मा का स्वभाव है - ध्यान, यह सामायिक ध्यान ही है । सामायिक समता है । समता आत्मा का निज गुण है। इसको बाहर से लाया नहीं जा सकता। वह तो भीतर से प्रकट होता है । जैसे नींद को लाना नहीं पड़ता, भोजन को पचाना नहीं पड़ता, नींद आती है, भोजन पचता है। केवल हमें वातावरण बनाना पड़ता है | वैसे ही हम ध्यान के लिए वातावरण बनाते है ।
ध्यान की पूरी विधि... ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि से आती है। ठाणेणं अर्थात् शरीर से स्थिर होकर, मोणेणं अर्थात् वाणी से मौन होकर, झाणेणं अर्थात् मन को ध्यान में नियोजित कर, अप्पाणं वोसिरामि
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