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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
से अभिप्राय है शरीर के प्रति ममत्व का त्याग। यहाँ पर अप्पाणं वोसिरामि का अर्थ आत्मा का त्याग करना नहीं अपितु देह के प्रति आसक्ति का त्याग, मूर्छा भाव का त्याग है। जव कायिक, वाचिक, और मानसिक प्रवृत्तियों पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है, तब ध्यान फलीभूत हो जाता है। समाधि की प्राप्ति होती है। आत्मा सिद्ध गति को प्राप्त कर लेती है। अतः ध्यान मोक्ष का कारण है।
से ग्रहण किए हुए संयम के पथिक श्रमण महावीर ने दीक्षा के अनन्तर सर्वप्रथम विहार कूर्माग्राम की ओर किया। स्थलमार्ग से वहाँ पहुँचकर ध्यानस्थ हो गए। उनके ध्यान के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है -
"नासाग्रन्यस्तनयनः प्रलम्बित भुजद्वयः। प्रभुः प्रतिमया तत्र तस्यौ स्थाणुरिव स्थिरः।।"
अर्थात् नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि को स्थिर कर दोनों हाथों को लम्बे किए हुए भगवान् स्थाणु की तरह ध्यान में अवस्थित हुए। नासाग्रदृष्टि का अर्थ है नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि को स्थिर करना। अर्धमुंदितनेत्र - आँखें आधी बन्द और आधी खुली। __ भगवान् की साधना के सम्बन्ध में आगमकार कहते
महापुरुषों की दृष्टि में ध्यान
भ. महावीर ने धर्मध्यान कहा, बुद्ध ने विपश्यना कहा, महर्षि पतंजलि ने समाधि कहा, रमण महर्षि ने मैं कौन हूँ? कहा, अरविन्द ने एक Universal Super Man की कल्पना की, जे. कृष्णमूर्ति ने Choiceless Awareness की बात कही। गुरु जी.एफ. ने Awareness की बात ही, कुछ नाम ले लो फर्क नहीं, सार है एक, तुम्हारे भीतर का धागा, अन्तर की ज्योति, तुम्हारी चेतना, साक्षीभाव । यह मानव का देह मिट्टी के दीपक की भाँति है, परंतु इसमें रही हुई एक ज्योति हमेशा ऊपर की ओर उठेगी। जैन धर्म में ध्यान साधना का इतिहास
जैन धर्म में ध्यान साधना की परंपरा प्राचीन काल से उपलब्ध होती है। इसका सबसे सुंदर और प्राचीन प्रमाण है कि, सभी २४ तीर्थकरों की प्रतिमायें चाहे वह पद्मासन में है, या खड़े हुए कायोत्सर्ग की मुद्रा में है। वे सभी ध्यान मुद्रा में ही उपलब्ध होती है। इतिहास साक्षी है कि कभी भी कोई भी जिन प्रतिमा ध्यान मुद्रा के अतिरिक्त किसी अन्य मुद्रा में उपलब्ध नहीं हुई। अतः जैन परंपरा में ध्यान का महत्व सर्वोपरि रहा है। आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर की ध्यान-साधना सम्बन्धी बहुत संदर्भ उपलब्ध हैं। भगवान् की साधना सावलम्ब व निरावलम्ब दोनों प्रकार की रही। 'सिद्धों को नमस्कार' की अनुगूंज
“अदुपोरिसिं तिरियभित्तिं चक्खुमासज्ज अंतसो झाइ। अह चक्खु-भीया सहिया ते हंता हंता बहवे कंदिसु।।
(आचा. प्रथमश्रुत स्कन्ध ६-१-५) भगवान् एक-एक प्रहर तक तिरछी भीत पर आँखें गड़ा कर अन्तरात्मा में ध्यान करते थे। (लम्बे समय तक अपलक रखने से पुतलियाँ ऊपर को उठ जाती थी) अतः उनकी आँखें देखकर भयभीत बनी बच्चों की मण्डली मारो! मारो!! कहकर चिल्लाती, बहुत से अन्य बच्चों को बुला लेती।
भगवान् की ध्यान साधना भी विशेष अनुष्ठान रूप मात्र न होकर समग्रजीवन चर्या रूप थी। आगमकारों ने कहा है - ____ "अप्पं तिरियं पेहाए अप्पं पिट्ठओ उप्पेहाए अप्पं बुइएपडिभासी पंथपेही चरे जयमाणे।"
(आचा. प्रथमश्रुत स्कन्ध ६-१-२१) श्रमण भगवान् महावीर चलते हुए न तिर्यक् दिशा को देखते थे, न खड़े होकर पीछे की ओर देखते थे और
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आत्मसाक्षात्कार की कला - ध्यान
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