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आत्म-साक्षात्कार की कला : ध्यान
ध्यान : आत्मभाव में रमण
भारत की भूमि आध्यात्मिक साधना की रंगस्थली रही है। इस भारत में समय-समय पर अनेक तीर्थंकरों का एवं प्रबुद्ध महापुरुषों का अवतरण हुआ है । यहाँ अनेकानेक आत्माएँ दिव्य साधना के बल पर अपनी दिव्यता को प्राप्त कर चुकी हैं। उन्होंने जन-जन को भगवत्ता प्राप्त करने की साधना दी है, जो आज के भौतिक सुखों की दौड़ में दौड़ने वाले जनमानस को वर्तमान क्षण में शाश्वत सुखशान्ति की अनुभूति कराती है, वह साधना है -
ध्यान-साधना ।
ध्यान एक दर्शन है। ध्यान शुभ भी है और अशुभ भी । आत्म स्वभाव में रमण करना ही ध्यान है। मन की चंचल वृत्तियों पर समता का अंकुश लगाना ध्यान है। ध्यान करने-करवाने की कला में सिद्धहस्त आचार्य डॉ. शिवमुनि जी म. ध्यान के रहस्यों को उद्घाटित कर रहे हैं, अपने इस आलेख के माध्यम से ।
सम्पादक
ध्यान के सम्बन्ध में आचार्यों का मत है कि उत्तम संहनन वाली आत्मा का किसी एक अवस्था में अन्तर्मुहूर्त के लिए चिंता का निरोध होता है वही ध्यान है ।
“ उत्तम संहननस्यैकाग्र चिन्तानिरोधो ध्यानम् । " (तत्त्वार्थ सूत्र १-२१)
अर्थात्, साधक का अपने चित्त का निरोध करते हुए अपने आत्मभाव में बिना किसी व्यवधान के ( अन्तर्मुहूर्त) स्थित रहना ही ध्यान है ।
भगवान् महावीर से गौतम स्वामी ने पूछा “एगग्गमण सन्निवेसणाएणं भन्ते जीवे किं जणयइ ?” अर्थात् भन्ते ! एकाग्र मन सन्निवेशना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा कि एकाग्रमन सन्निवेशना से जीव चित्त का निरोध करता है ।
आत्म-साक्षात्कार की कला : ध्यान
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जैन संस्कृति का आलोक
आचार्य डॉ. श्री शिवमुनि
एकाग्रता अर्थात् अपने चित्त को किसी एक आलम्बन में स्थित करके आत्मभाव में रमण करने से चित्त का निरोध होता है और आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है । अतः चित्त की स्थिरता ही आत्मभाव में रमण करने का साधन है; यही साधन ध्यान है ।
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मन का स्वरूप क्या है ? जैसे सागर में लहरों का स्थान है वही स्थान चेतना रूपी समुद्र में अर्थात् अंतःकरण में उठनेवाले संकल्प-विकल्प जनित वैचारिक लहरों का है । इन संकल्प-विकल्पों का कोई निज अस्तित्व नहीं है । ज्यों ही समुद्र शान्त होने पर लहरें शान्त हो जाती है, उसी प्रकार चेतना में शुद्ध भावों का आविर्भाव होने पर अंतःकरण के संकल्प-विकल्प शान्त हो जाते हैं और निर्विकल्पक अवस्था प्राप्त होती है। निर्विकल्पक अवस्था को प्राप्त करने के लिये आवश्यक है - ज्ञाता-द्रष्टा भाव की साधना । अंतःकरण में उठनेवाले संकल्प-विकल्पों को द्रष्टाभाव से देखने का अभ्यास साधना के द्वारा करें। तभी उसे अनुभूति होती है
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एगो मे सासओ अप्पा नाण- दंसण संजुओ । सेसा से बाहिरा भावा सव्वे संजोग लक्खणा । ।
अर्थात् एक मेरी आत्मा शाश्वत है जो ज्ञान-दर्शन से संयुक्त है शेष सभी बाहर के भाव हैं। अर्थात् संयोग मात्र है ।
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