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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग विज्ञान / १०७
योग के छह भेद - इसके पश्चात् योग के छह भेदों का विवेचन है - (१) तात्त्विक, (२) प्रतात्विक, (३) सानुबन्ध, (४) निरनुबन्ध, (५) सास्रव एवं (६) मनासव
योग का यथाविधि अनुसरण, तात्त्विक योग है । केवल लोकरंजनार्थ योग का प्रदर्शन तात्त्विक योग है। लक्ष्य प्राप्त करने तक प्रविच्छिन्न गतिमान् सानुबन्ध योग है । जिसमें बीच-बीच में गतिरोध आता रहता है, वह निरनुबन्ध योग है जो संसार परिभ्रमण को दीर्घ बनाता है वह सास्रव योग है जो संसार परिभ्रमण को समाप्त करता है, वह 'मनासव योग' है ।
वस्तुतः ये छह भेद योग की भिन्न भिन्न अवस्थाओंों के सूचक हैं।' योग माहात्म्य - इसके बाद योग के माहात्म्य की चर्चा है
योगः कल्पतरुः श्र ेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योग: सिद्ध: स्वयंग्रहः ॥ २
यहाँ आचार्य ने योग की सर्वार्थसाधक कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणि से तुलना करते हुए उसे समस्त धर्मों में प्रधान एवं सिद्धि मुक्ति का अनन्य हेतु बताया है।
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मागे प्राचार्य कहते हैं कि योग न केवल सांसारिक दुःखों से अपितु जन्म-मरण के दुःखों से भी छुटकारा दिलाकर निर्वाण की प्राप्ति करा देता है । इस प्रसंग में श्राचार्य ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही है- योगाभ्यासी पुरुष के लिए योग के प्रभाव से ऐसे उत्तम स्वप्न धाते हैं, जिससे उसके सभी प्रकार के संदेह दूर हो जाते हैं । यहाँ तक कि इष्टदेव के दर्शन भी उसे हो जाते है । "
आगे कहा गया है कि धैर्य, श्रद्धा, मैत्री, लोकप्रियता, सदाचार, गौरव, परम शान्ति की अनुभूति जैसे दुर्लभ हो जाते हैं ।
योग के अधिकारी
जो जोव चरमपुद्गलावर्त में स्थित है, अर्थात् जिसका संसारस्थिति-काल मर्यादित हो गया है, शुक्लपाक्षिक है अर्थात् मोहनीय कर्म के तीव्र भावरूप अन्धकार से रहित है, भिन्नग्रन्थ है अर्थात् जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है, एवं चारित्री है अर्थात् चारित्र पालन के पथ पर ग्रारूढ है, वह योग का अधिकारी है। ऐसा व्यक्ति योगसाधना के द्वारा अनादिकाल से चले आ रहे भवभ्रमण का अन्त कर देता है। 5
१. तात्विक भूत एव स्यादन्यो लोकव्यपेक्षया । प्रच्छिन्नः सानुबन्धस्तु छेदवानपरो मतः ॥ साखवोः दीर्घसंसारस्ततोऽन्योऽनास्रवः परः,
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तत्त्वज्ञान, द्वन्द्वसहिष्णुता, क्षमा, मानवीय गुण भी योग से प्राप्त
अवस्थाभेदविषयाः संज्ञा एता यथोदिताः ॥ -- योगबिन्दु ३३ ३४ २. योगबिन्दु ३७।३. वही, ३८४. वही ४२, ५. वही ४३ ६. योगबिन्दु ५२-५४
७. "चरमे पुदगलावर्ते यतो यः शुक्लपाक्षिकः ।
भिनय चरित्र तस्यैवैतदुदाहृतम् ॥" योगबिन्दु ७२ ८. वही ९९
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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