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पंचम खण्ड / १०८
अर्चनार्चन
इसके विपरीत जो अचरमपुद्गलावर्त में स्थित हैं, वे मोहकर्म की प्रबलता के कारण संसार में, काम-भोगों में प्रासक्त बने रहते हैं। अतः ये योग के अधिकारी नहीं हैं। प्राचार्य ने उन्हें 'भवाभिनन्दी' की संज्ञा से सम्बोधित किया है।'
योग के अधिकारी जीवों को प्राचार्य ने चार भागों में विभक्त किया है- १. अपुनबंधक, २. भिन्नग्रन्थि, ३. सम्यग्दृष्टि (बोधिसत्व) तथा ४. चारित्री।
___ अपुनबंधक-जो 'भवाभिनन्दी' जीव में पाए जाने वाले दोषों के प्रतिकूल गुणों से युक्त होता है एवं अभ्यास द्वारा उत्तरोत्तर गुणों का विकास करता जाता है, वह अपुनबंधक होता है। वह गुरुजनों तथा देवों का पूजन, सदाचार, तप, मुक्ति से अद्वेष रूप 'पूर्व सेवा' का पाराधक होता है।
भिन्नग्रन्थि-जिसकी अज्ञानजनित मोहरागात्मक ग्रन्थि भिन्न हो जाती है, ऐसे सत्पुरुष का चित्त मोक्ष में रहता है और देह संसार में। उसके जीवन की समस्त प्रक्रिया योग में समाविष्ट रहती है।
सम्यगदष्टि (बोधिसत्व)-ग्रन्थिभेद हो जाने पर जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसमें प्रशम आदि गुण विशेषरूप से प्रकट हो जाते हैं । यथाशक्ति धर्मतत्त्व सुनने की इच्छा, धर्म के प्रति अनुराग, गुरु तथा देवादि की पूजा-ये उसके लक्षण हैं।
अन्तविकास की दृष्टि से इस अवस्था तक पहुँचा पुरुष बौद्धपरम्परा में "बोधिसत्व" कहा जाता है। ऐसे पुरुष "बोधिसत्त्व" के समान कायपाती तो होते हैं, चित्तपाती नहीं। जो उत्तम बोधि से युक्त होता है, भव्यता के कारण अपनी मोक्षाभिमुख यात्रा में आगे चलकर 'तीर्थकर' पद प्राप्त करता है, वह "बोधिसत्त्व" है।
चारित्री-सदनुष्ठान में प्रवृत्त साधक के जब परिमित कर्म विनिवृत्त हो जाते हैं, तब वह चारित्री होता है। अध्यात्मपथ का अनुसरण, श्रद्धा, धर्म-श्रवण में अभिरुचि आदि चारित्री के लक्षण हैं । अनुष्ठान के पाँच भेद
प्रस्तुत ग्रन्थ में पांच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया गया है-१. विष, २. गर, ३. अनुष्ठान, ४. तद्धेतु एवं ५. अमृत । १. "भवाभिनन्दिनो प्रायस्त्रिसंज्ञा एव दुःखिताः॥" -योगबिन्दु ८६ ___ "अज्ञो भवाभिनन्दी स्यान्निष्फलारम्भसंगतः ॥” –वही ८७ ।।
योगबिन्दु १७८-१७९ ३. “भिन्नग्रन्थेस्तु यत् प्रायो मोक्षे चित्तं भवे तनु ॥" --वही २० ४. “सम्यग्दृष्टिर्भवत्युच्चैः प्रशमादिगुणान्वितः ।"-वही २५२, २५३ ५. "अयमस्यामवस्थायां बोधिसत्वोऽभिधीयते ।" -वही २७०, २७१
"वरबोधिसमेतो वा तीर्थंकृद्यो भविष्यति ।" -वही २७४ ।। ७. वही ३५२ ८. वही ३५३ ९. वही १५५ - "विषं गरोऽनुष्ठानं तद्धेतुरमृतं परम् ।''
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