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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग-विज्ञान / १०५
बौद्ध साहित्य में आर्य-अष्टांग का वर्णन किया गया है, उसमें शील, समाधि और प्रज्ञा के उल्लेख प्राप्त होते हैं।'
बौद्धों द्वारा स्वीकृत शोल में पतंजलि सम्मत यम-नियम का समावेश हो जाता है। बौद्ध साहित्य में पंच शील, वैदिक परम्परा में पांच यम और जैन-परम्परा में पांच महाव्रत प्रायः एक समान हैं । जैसा कि हम पहले बता चुके हैं यम और महाव्रतों के नाम एक सदृश हैं । पंच शील में प्रथम चार के नाम यही हैं, परन्तु अपरिग्रह के स्थान पर मद्य से निवृत्त होने का उल्लेख है।
बौद्ध-समाधि में योग सूत्र द्वारा वणित प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश हो जाता है । बौद्ध-परम्परा 'द्वारा मान्य 'प्रज्ञा' और योगसूत्र में वणित 'विवेक-ख्याति' में पर्याप्त अर्थसाम्य है।
इस प्रकार बौद्ध साहित्य में वणित योग, अन्य परम्पराओं से कहीं शब्द से, कहीं अर्थ से और कहीं प्रक्रिया से साम्य रखता है।
जैन योग-परम्परा
भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक मौन रहकर घोर तप, ध्यान और आत्मचिंतन के द्वारा योग-साधना का ही जीवन बिताया था। जैनागमों में वणित साध्वाचार-पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति, बारह प्रकार का तप, चार प्रकार का ध्यान आदि जो योग के मुख्य अंग हैं, उन्हें साधुजीवन-श्रमण-साधना का प्राण माना गया है।
जैनदर्शन में योग-साधना के अर्थ में 'ध्यान' शब्द का प्रयोग हा है। प्राचार्य उमास्वाति ने 'ध्यान' का लक्षण किया है-"उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमहर्तात"3 अर्थात-किसी एक विषय में चित्तवत्ति का निरोध (रोकना) ध्यान है। यह उत्तम संहनन वाले व्यक्ति के केवल अन्तर्महर्त तक हो सकता है। प्राचार्य ने इसके चार भेद किए हैं--(१) प्रार्त, (२) रौद्र, (३) धर्म तथा (४) शुक्ल । इनमें प्रथम दो-प्रार्तध्यान एवं रौद्रध्यान संसार के कारण है तथा अन्तिम दो-धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं।
इस ध्यान का पातंजल चित्तवृत्तिनिरोधरूप 'समाधि' से सामंजस्य बैठता प्रतीत होता है।
१. शील का अर्थ है-कुशल धर्म को धारण करना तथा कर्त्तव्य में प्रवत्ति एवं अकर्तव्य से
निवृत्ति ।-"विसुद्धमग्ग' १११९।२५ समाधि का अर्थ है-कुशल चित्त की एकाग्रता -वही, ३।२।३
प्रज्ञा का अर्थ है-कुशल चित्तयुक्त विपश्य-विवेकज्ञान, वही, १४।२।३ २.. उपाध्याय अमरमुनि 'जैनयोग एक परिशीलन', पृष्ठ ६४ ३. तत्त्वार्थसूत्र-९।२७ ४. "आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि" तत्त्वार्थसूत्र ९।२८
"परे मोक्षहेतु"--वही ९।२९
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन
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