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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग-विज्ञान / १०३
प्राचार्य हरिभद्र ने 'योग' का अर्थ 'संयोग' किया है, वे कहते है कि 'मोक्षेण योजनाद् योग: " अर्थात् 'योग' एक सार्थक शब्द है क्योंकि वह आत्मा को मोक्ष से जोड़ देता है । जैनदर्शन में 'योग' शब्द का अपना एक विशिष्ट अर्थ भी है
"कायवाङ मनः कर्म योग: " अर्थात् शरीर, वचन एवं मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । यह दो प्रकार का है— शुभयोग और अशुभयोग । शुभयोग से पुण्य एवं अशुभ योग से पाप कर्मों का 'लव' होता है। यह दोनों प्रकार का योग कर्मबन्ध का कारण है। अतः मोक्ष प्राप्त करने के लिए योग का निरोध ( संवर) करना पड़ता है।
यहाँ 'योग' शब्द को एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द समझना चाहिए, जिसका भारतीय योगदर्शन से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है ।
योग के अर्थों में सामंजस्य
वैदिक विचारधारा में 'योग' का अर्थ 'समाधि' एवं जैन विचारधारा में 'योग' का अर्थ 'संयोग' हुआ है। इन दोनों ग्रथों की परस्पर भिन्न नहीं मानना चाहिए। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर इन दोनों अर्थों में सामंजस्य प्रतीत होता है ।
प्राचार्य हरिभद्र ने 'योगबिन्दु' के प्रारंभ में इसी बात की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए
लिखा है।
"मोक्षहेतुर्यतो योगो भिद्यते न ततः साध्याभेदात् तथाभावे तूक्तिभेवो न
अर्थात् योग, मोक्ष का हेतु है। परम्पराधों की भिन्नता के बावजूद मूलतः उसमें कोई भेद नहीं है । जब योग के साध्य या लक्ष्य में किसी को कोई भेद नहीं है, वह सबको एक समान है, तब उक्तिभेद या विवेचन की भिन्नता वस्तुतः योग में किसी प्रकार का भेद नहीं ला सकती ।
क्वचित् । कारणम् ॥४
समाधि अर्थात् चित्तवृत्ति का निरोध, एक क्रिया है-साधना है। वह निषेधपरक नहीं प्रत्युत विधेयात्मक है । चित्तवृत्ति के निरोध का वास्तविक अर्थ है अपनी संसाराभिमुख चित्तवृत्तियों को रोक कर साधना को साध्यसिद्धि या मोक्ष के अनुकूल बनाना । जनविचारक मोक्ष के साथ सम्बन्ध करानेवाली क्रिया-साधना को 'योग' कहते हैं। इस प्रकार 'योग' के दोनों प्रथों में वस्तुतः भेद नहीं किन्तु प्रभेद समझना चाहिए ।"
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१. योगबिन्दु - ३१
२. प्रा. उमास्वाति का तत्वार्थसून ६।१
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३. " शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य," वही ६।२, "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः ", वही ८१, बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां मोक्षः," वही १०११
४. योगबिन्दु - ३
५. प्राचार्य हरिभद्रसूरि 'जैनयोगग्रन्थ चतुष्टय श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर, निबन्ध 'जैनयोग: एक परिशीलन' पु० ४३-४४
संपादक डॉ. छगनलाल शास्त्री, मुनि १९८२ में प्रकाशित, उपाध्याय श्रमरमुनि का
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आसनस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके
आश्वस्त जन
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