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पंचम खण्ड / १००
अर्चनार्चन
हरिभद्र के जीवन से सम्बन्धित प्रबन्ध उपलब्ध हैं। प्राचर्य भद्रेश्वररचित प्राकृत 'कहावली' के अंत में प्राचार्य हरिभद्र का वृत्तान्त संक्षेप में वर्णित हा है।
___ तदनुसार आचार्य हरिभद्र का जन्म चित्तौड़ (चित्रकूट) में हुआ था। उनके पिता का नाम शंकरभट्ट और माता का नाम गंगा था। वे जन्म से ब्राह्मण थे। बाद में वे राजपुरोहित बने।
प्राचार्य हरिभद्र ने, प्राचार्य जिनभट के विद्याधरगच्छ से सम्बन्धित श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की। उनके दीक्षा-गुरु का नाम जिनदत्त सूरि था। प्राचार्य के जीवन में जिस व्यक्ति ने महत्तर परिवर्तन किया वह है 'याकिनी महत्तरा' नाम की साध्वी। प्राचार्य ने इस साध्वी को अपनी धर्ममाता का पद प्रदान किया और सदैव उनके पुत्र के रूप में अपने को उल्लिखित करते रहे।
कहा जाता है कि हरिभद्र ने मेवाड़ के एक बहुत बड़े समुदाय को सम्बोधित कर उसे जैनधर्म में दृढ़ विश्वासी बनाया । वह समुदाय आज 'पोरवाड़' जाति के नाम से प्रसिद्ध है'।
समय
प्राचार्य हरिभद्र के समय की पहेली लगभग हल हो चुकी है। प्रख्यात पुरातत्त्ववेत्ता एवं जैनसाहित्य संशोधक मुनि श्री जिनविजयजी ने अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर प्राचार्य हरिभद्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का अंतिम एवं नवमी शताब्दी का प्रारम्भ निश्चित किया है।
प्रायः समस्त भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान् प्राचार्य हरिभद्र के इस समय को प्रामाणिक स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध जर्मन भारतविद् प्रो. हर्मन याकोबी ने भी प्राचार्य हरिभद्र के इस समय को प्रामाणिक रूप में स्वीकार कर लिया है ।२
कृतियाँ
प्राचार्य हरिभद्र की कृतियों के परिमाण के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मन्तव्य प्रचलित हैं । 'प्रबन्धकोश' तथा विजयलक्ष्मी सूरि के 'उपदेशप्रासाद' में १४४० प्रकरणों के, तथा 'प्रभावकचरितम्' में १४०० प्रकरणों के प्राचार्य हरिभद्र द्वारा रचे जाने के उल्लेख हैं। 3
अभी लगभग सौ के आसपास छोटे-बड़े ग्रन्थ ज्ञात हो सके हैं जो प्राचार्य हरिभद्र रचित
१. डॉ. छगनलाल शास्त्री, सम्पादक एवं अनुवादक 'समराइच्चकहा' प्रथम खण्ड, प्रकाशक
अ. मा. साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर, १९७६, प्रस्तावना पृ. २ . १९२६ में 'एशियाटिक सोसा. बंगाल'द्वारा 'Bibliotheca Indica No. 169' के अन्तर्गत
प्रकाशित, प्रो. हर्मन याकोबी द्वारा सम्पादित 'समराइच्चकहा' की भूमिका (इन्ट्रोडक्शन) ३. 'प्रभावकचरितम्' का ९ वां प्रबन्ध 'हरिभद्रसूरिचरितम्'
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