________________
आचार्य हरिभद्र के गान्शों में
दृष्टान्त व न्याय - डॉ. दामोदर शास्त्री, दिल्ली
भारतीय धार्मिक व दार्शनिक चिन्तन की सुरक्षा व विकास प्रक्रिया में श्रद्धा के साथ-साथ तर्क व युक्ति की भी प्रमुख भूमिका रही है । यद्यपि श्रद्धा व तर्क-इनकी दिशाएँ परस्पर विपरीत प्रतीत होती हैं, तथापि विवेक व मध्यस्थता की भावना के माध्यम से इन दोनों को सत्यान्वेषण के लक्ष्य की ओर उन्मुख कर एकार्थसाधक बताया जाता रहा है। वस्तुतः विवेक के अभाव में श्रद्धा का विकृत रूप 'अन्धविश्वास' के रूप में, तथा तर्क का 'शुष्क विवाद' के रूप में प्रकट होता है। श्रद्धा व तर्क-इन दोनों का अतिरंजन, या इनमें से किसी एक के प्रति ऐकान्तिक आग्रह मिथ्यात्व व मिथ्याभिनिवेश को जन्म देता है। इसलिए भारतीय प्राचार्यों ने, जिनमें जैन व जैनेतर दोनों सम्मिलित हैं, सत्यान्वेषी को कुतर्क, शुष्क विवाद व अन्धश्रद्धा से बचने हेतु सावधान किया है।' इतिहास साक्षी है कि उक्त प्राचार्यों व मनीषियों के निर्देश की जब-जब अवहेलना या उपेक्षा हुई है, तब-तब चिन्तन की विकासप्रक्रिया को आघात पहुँचा है। दृष्टान्त व युक्ति का जैन-परम्परा में प्रवेश
अनेकान्तवाद व स्याद्वाद के रूप में जैन परम्परा ने दार्शनिक चिंतन के क्षेत्र में मध्यस्थता, निष्पक्षता व समन्वय की भावना को सदा पुष्ट किया है, और इस प्रकार दार्शनिक चिन्तन की प्रक्रिया को विकसित होने में प्रमुख योगदान किया है। समन्वयवादी प्राचार्यों के मत में श्रद्धा व युक्ति-इन दोनों के समन्वय पर ही 'दृष्टि की पूर्णता' प्रतिपादित हुई है। श्रद्धा व तर्क-इन दोनों में विरोध न हो, अपितु समन्वय-भावना बनी रहे-इस दृष्टि से जैन आचार्यों के अनुसार श्रद्धा व तर्क-इन दोनों के प्रतिवादों से बचना चाहिए । मनु ने प्रागम-प्रविरोधी तर्क को समर्थन देकर श्रद्धा व तर्क का समन्वय प्रस्तुत किया। उसी भावना को आगे बढ़ाते हुए जैन प्राचार्यों ने कहा-पागम में प्रतिपादित इन्द्रिय-गम्य स्थल पदार्थों को युक्ति व तर्क की कसौटी पर भी परखना अनुचित नहीं है। हाँ, अतीन्द्रिय, सूक्ष्म पदार्थों के सम्बन्ध में सावधानी अवश्य बरतनी चाहिए। चूंकि अतीन्द्रिय पदार्थ श्रद्धा व स्वानुभव ( स्वसंवेदन ) द्वारा ही गम्य हैं, और तर्क की परिधि से बहिर्भत हैं अतः उनके विषय में कुतर्क या विवाद का आश्रयण उचित नहीं ।
नियुक्तिकार प्रा. भद्रबाहु ( वि. स-६ शती) ने पदार्थों को दो वर्गों में विभाजित किया-१. आगमगम्य और २. दृष्टान्तगम्य । आगमगम्य तत्त्वों के निरूपण में युक्ति, तर्क आदि को अवकाश नहीं है। दृष्टान्तगम्य पदार्थों की समीक्षा स्वतन्त्र चिन्तन, युक्ति व तर्क के माध्यम से करते हए उनकी सत्ता को प्रमाणित करने के साथ-साथ उनके स्वरूप को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org