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में हुए 10 आर. विलियम के अनुसार सिद्धसेनगणि का समय ई० आठवीं शताब्दी के आसपास का है ।11 अतः यह निश्चित ही है कि सिद्धसेनगणि सातवीं-आठवीं शताब्दी में हुए । तत्वार्थभाष्यवत्ति की रचना तत्वार्थराजवातिक से पर्व ।
तत्वार्थसूत्र पर अनेक टीकाएं रची गई हैं। इनमें से कुछ श्वेताम्बर परम्परानुसार रची गई हैं और अन्य दिगम्बर परंपरानुसार । तत्वार्थसूत्र पर स्वोपज्ञभाष्य रचा गया, जिसका रचना-काल दूसरी-तीसरी शताब्दी माना गया है । तत्वार्थसूत्र की एक अन्य टीका पूज्यपाद देवनंदी कृत सर्वार्थसिद्धि है, यह दिगम्बर-परम्परानुसार रची गई है। इसका रचना काल विक्रम की ५-६ शताब्दी है । एक अन्य टीका सिद्धसेनगणि कृत तत्वार्थभाष्यवृत्ति है। यह स्वोपज्ञ-भाष्य पर श्वेताम्बर-परम्परानसार रची गई है । सिद्धसेनगणि का समय ई. सातवीं-आठवीं शताब्दी है । दिगम्बर-परपरानुसार रची गई एक अन्य टीका भट्ट अकलंक कृत तत्वार्थराजवातिक है । भट्ट अकलंक का समय ईस्वी ७-८ शताब्दी है ।12 अतः सिद्धसेनगणि तथा अकलंक दोनों समकालीन हैं । परन्तु उनके द्वारा रची गई तत्वार्थसूत्र की टीकाओं में पौर्वापर्य अवश्य होगा । यह विवाद का विषय बना हुआ है कि दोनों (तत्वार्थभाष्यवृत्ति तथा तत्वार्थराजवासिक) में से कौन सी टीका पहले रची गई और कौन सी बाद में ।
तत्वार्थराजवातिक तथा तत्वार्थभाष्यवृत्ति के आन्तरिक अवलोकन के आधार पर कहा जा सकता है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवातिक से पहले रची गई । इस मत का समर्थन चारचार आधारों से किया जा सकता है। प्रथम-सूत्रपाठ का खण्डन, द्वितीय-शौली, तृतीय-विषय विकास, चतुर्थ-परम्परा-विशेष के मत का स्थापन करने की प्रवृत्ति । सूत्रपाठ का खण्डन
तत्वार्थसूत्र ३.१ पर रची राजवातिक में अकलंक ने श्वेताम्बर परम्परा मान्य सूत्रपाठ--"सप्ताधोऽधः पृथुतरा:' का उल्लेख किया है। यही सूत्रपाठ तत्वार्थभाष्य तथा तत्वार्थभाष्यवृत्ति में मिलता है । अकलंक ने इसी सूत्रपाठ को तर्कबल से असंगत कहा है। 13 इसी प्रकार तत्वार्थसूत्र ४.८ की राजवातिक में अकलंक ने श्वेताम्बर-परम्परा मान्य सूत्रपाठ को अनुपयुक्त बतलाया है । ऐसा प्रतीत होता है कि तत्वार्थराजवातिक रचते हए अकलंक - के सम्मुख तत्वार्थभाष्य तो था ही पर तत्वार्थभाष्य के अतिरिक्त १०. पं० सुखलाल, तत्वार्थसूत्र (हिन्दी), परिचय पृ० ४२ ११. आरः विलियम, जैन योग, लन्दन सन् १९६२, पृ०७ १२. विस्तार के लिये देखिये--अनन्तवीर्य, सिद्धिविनिश्चय टीका
संपादक डा० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य, काशी, सन्
१९५९, भाग प्रथम पृ०४४-५५ १३. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग प्रथम संपादक पं० महेन्द्रकुमार
जैन न्यायाचार्य काशी, सन् १९५३, पृ० १६१ १४. वही, पृ० २१५
ऐसी कोई महती टीका भी थी, जिसमें प्राप्य सूत्रपाठ का अकलंक ने केवल खण्डन ही नहीं किया है अपितु स्व-परम्परामान्य सूत्रपाठ की महत्ता बताने के लिए अकलंक को तर्क-बल से उस सूत्रपाठ का निराकरण करने की आवश्यकता भी जान पड़ी । इसके स्थान पर तत्वार्थभाष्यवृत्ति में सिद्धसेनगणि द्वारा किया गया दिगम्बर-परम्परामान्य सूत्रपाठों का खण्डन अपेक्षाकृत कम प्रबल है, हालांकि सिद्धसेनगणि ने तत्वार्थभाष्यवृत्ति जिसका रचनाकाल तत्वार्थभाष्य के पश्चात् है तथा जो श्वेताम्बर परम्परा में विद्वद्कार्य मानी जाती है, में तत्वार्थसूत्र पाठों के पाठान्तर तथा उनके विषय में कहे गए अन्य विद्वानों के मत कहे हैं । इसका तात्पर्य है कि सिद्धसेनगणि के समय में तत्वार्थसूत्र के विभिन्न पाठ उपलब्ध थे परन्तु दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परानुसार सूत्रपाठ का विवाद इतना प्रबल नहीं था जितना अकलंक द्वारा तत्वार्थराजवार्तिक रचते समय था । अतः स्वपरम्परामान्य सूत्रपाठ की सुरक्षा के लिए अकलंक को दिगम्बर परम्पराविरोधी तथा श्वेताम्बर परम्परानुसार सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति में पाए जाने वाले सूत्रपाठों का खण्डन करना पड़ा। ____ श्वेताम्बर परम्परा मान्य तत्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय में एक सूत्र है "द्रव्याणि जीवाश्च" दिगम्बर टीकाकार पूज्यपाद (विक्रम ५-६ सदी) ने इस सूत्र को 'द्रव्याणि" तथा "जीवाश्च" दो सूत्रों में कहा है 1 सिद्धसेनगणि ने उक्त सूत्र को दो सूत्रों में विभाजन को अयुक्त बताया है । परन्तु अकलंक 'तत्वार्थवातिकार' ने "द्रव्याणि" तथा "जीवाश्च" इन दोनों सूत्रपाठों को युक्त कहा है तथा तर्कबल से इन दोनों सूत्रपाठों की सिद्धि की है ।18 इससे निष्कर्ष निकलता है कि तत्वार्थभाष्य (२-३ सदी) में कथित एक सूत्र का दो सूत्रपाठों में विभाजन पूज्यपाद देवानन्दी (५-६ सदी) सर्वार्थसिद्धिकार को मान्य है। सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्तिकार ने सर्वार्थ सिद्धि में कथित दोनों सूत्रपाठों का उल्लेख किया है तथा सूत्र के इस प्रकार के विभाजन को असिद्ध कहा है, उसी के प्रत्युत्तर में अकलंक को विस्तार से सिद्ध करना पड़ा कि एक सूत्र 'द्रव्याणि जीवाश्च" कहने से केवल जीव ही द्रव्य कहे जायेंगे, अजीव नहीं। अधिकार रहने पर जब तक इस प्रकार का प्रयत्न न किया जाय तब तक अजीवों में द्रव्यरूपता नहीं बन सकती। अतः पृथक सूत्र बनाना उचित है । इस विवाद से निष्कर्ष १५. सिद्धसेनगणि कृत तत्वार्थभाष्यवृत्ति ही इस रूप में
उपलब्ध है। १६. पूज्यपाद देवनंदी, सर्वार्थसिद्धि, संपादक पं. फूलचन्द सिद्धांत
शास्त्री काशी सन् १९५५ प्रथम संस्करण पृ० २६६-२६८ १७. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पृ० ३२० १८. अकलंक, तत्वार्थवातिक, भाग दो संपादक पं. महेन्द्रकुमार
जैन न्यायाचार्य काशी, सन् १९५७ पृ० ४४२-४४३ १९. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति भाग प्रथम, पृ० ३२० , २०. अकलंक, तत्वार्थवातिक भाग २, पृ० ४४२-४४३
बी. नि. सं. २५०३
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