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________________ ... .............. ..................................................... .......... साध्वीरत्नपुष्पावती अभिनन्दन ग्रन्थ ...... 1. मुक्त जीव, 2. भव्य जीव, 3. अभव्य जीव, 4. अजीव। मुर्तिक और अमूर्तिक अजीव के दो भेद हो जाने के कारण प्रकारान्तर से तत्त्व के निम्न भेद कहे जा सकते हैं :1. संसारी, 2. मुक्त , 3. मूर्तिक, 4. अमूर्तिक / LADDED......... : करते हुए आचार्य जिनसेन ने मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने वाले मुनियों के रहन-सहन, आचार-विचार एवं उनके गमनागमन के नियमों का भी वर्णन किया है। मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने वाले साधक सब प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, जिन्हें अपने शरीर के प्रति ममत्व नहीं है, जो धर्म में स्थित हैं और संतोष की भावना से जिन्होंने तृष्णा को दूर कर दिया है ऐसे गृह-रहित मुनिराज श्मशान, वन की गुफाओं में निवास करते हैं तथा सिंह, रीछ, भेड़िया, व्याघ्र, चीता आदि जंगली पशुओं की भयंकर गर्जना वाले स्थान में स्वाध्याय तप, ध्यान आदि दैनिक क्रियाओं को करते हुए पर्यंकासन से बैठकर, वीरासन से बैठकर अथवा एक करवट से ही सोकर रात्रियाँ बिता देते हैं। __ वे रत्नत्रय की विशुद्धि के लिए सांसारिक कार्यों को छोड़कर त्रसकाय, वनस्पतिकाय, पृथिवीकाय, जलकाय, वायुकाय और अग्निकाय इन छह काय के जीवों की बड़े यत्न से रक्षा करते हैं। वे हृदय में दीनता से रहित अत्यन्त शांत, परम उपेक्षा सहित, तीन गुप्तियों के धारक तथा जिनके श्रुतज्ञान ही नेत्र हैं, जो परमार्थ को अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए वे मुनिजन समीचीन मार्ग का निरन्तर चितवन करते हुए आहार-विहार आदि क्रियाओं को करते रहते हैं। तत्त्व-विचार ___"भारतीय साहित्य में तत्त्व के विषय में गम्भीर रूप से विचार किया गया है। "तत्" शब्द से "तत्त्व" शब्द बना है। संस्कृत भाषा में तत् शब्द सर्वनाम है। सर्वनाम शब्द सामान्य अर्थ के वाचक होते हैं / “तत्" शब्द से भाव अर्थ में “त्व" प्रत्यय लगकर “तत्त्व" शब्द बना है। जिसका अर्थ होता है उसका भाव-"तस्य भावः तत्वम्" / अतः वस्तु के स्वरूप को और स्वरूपभूत वस्तु को तत्त्व कहा जाता है। दर्शन साहित्य के क्षेत्र में तत्त्व का प्रयोग गम्भीर चिन्तन-मनन के लिए हुआ है / चिन्तन-मनन का प्रारम्भ ही तत्त्व-वस्तुस्वरूप के विश्लेषण से होता है। किं तत्त्वम्-तत्त्व क्या है। यही मूलभूत जिज्ञासा दर्शन क्षेत्र में है। 1. आदिपुराण 24/88 3. आदिपुराण 24/199-208 2. आदिपुराण 24/172-192 4. जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण-देवेन्द्रमुनि शास्त्री 78 | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jainelibrary.org
SR No.210187
Book TitleAcharya Jinasena ka Darshanik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherZ_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
Publication Year1997
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size899 KB
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